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मोहनीय कर्म के क्षय का लक्ष्य और साधना
सर्वज्ञ परमात्मा ने कर्म विज्ञान के स्वरूप को अद्भुत-अनोखे विशिष्ट अर्थ में समझाया है । अत्यन्त गहन-तत्त्व है । शास्त्रों में इसका विश्लेषण सिर के एक एक बाल की तरह अलग-अलग विभाजनादि करके दर्शाया है । इसमें भी मोहनीय कर्म जो कर्मों का राजा है अतः इसका स्वरूप समुद्र से भी ज्यादा विस्तारपूर्वक समझाया है । आप ही सोच समझ सकते हैं कि यहाँ सिंधु में से बिंदु परिमित स्वरूप जो दिया है उससे ख्याल आ सकता है कि मोहनीय कर्म कितना प्रबल गहनतम है। ___१४ गुणस्थानों में से १ से लगाकर १२ गुणस्थान तक तो मोहनीय कर्म का पूरा . एकछत्री साम्राज्य है । मोहनीय कर्म ने अपनी प्रबल पक्कड रखी है । है तो सिर्फ २८ कर्म प्रकृतियाँ ही लेकिन फिर भी १ ले गुणस्थान से आगे आगे.. के गुणस्थानों पर आत्मा को चढने तभी देता है जब थोडी-थोडी कर्म प्रकृतियाँ क्षीण होती जाय। जैसे-जैसे मोहनीय कर्म का जोर कम होता जाएगा, उसकी प्रकृतियाँ क्षय होती जाएगी.. वैसे-वैसे आत्मा का आवृत्त स्वरूप कर्मावरण के विलय से उजागर होता जाएगा और आत्म गुण प्रकट होते जाएँगे। इन गुणों के प्रादुर्भाव से.. चेतनात्मा एक–एक गुणस्थान ऊपर-ऊपर चढती जाएगी। मोक्ष मार्ग के सोपानों पर क्रमशः आगे चढती-चढती आत्मा एक दिन मोक्ष में पहुँच सकेगी। ___अतः जैसे जैसे कपडा धुलता है उससे उसकी चमक-दमक स्वच्छता-शुद्धि सभी खिलती जाती है । बढती जाती है। सोने-चांदी-आदि पर भी जैसे जैसे पॉलीश की जाती है वैसे-वैसे चमक-दमक बढती जाती है । ठीक वैसे ही आत्मा जैसे जैसे धर्म साधना रूपी साबुन या पॉलीश इस्तेमाल करती जाय, वैसे-वैसे कर्म निर्जरा होती जाय . . और आत्मा की चमक-दमक-शुद्धि-आदि बढती ही जाती है। यही चमक-दमक और शुद्धि आदि चेतनात्मा को गुणस्थान के एक एक सोपान क्रमशः आगे बढाती जाती है। क्योंकि कर्मावरण के हटने से गुणों का प्रादुर्भाव होता जाता है । अतः जैसे-जैसे गुण बढते जाएंगे वैसे-वैसे चेतनात्मा आगे-आगे के गुणस्थानरूपी सोपान पर आरूढ होती जाएगी। अन्ततः संपूर्ण शुद्धता और सर्वथा सर्वांशिक सर्व कर्मों की संपूर्ण निर्जरा (क्षय) करके हमारी ही चेतनात्मा सर्व कर्मसंग रहित सिद्ध-बुद्ध-मुक्त-सिद्धात्मा, मुक्तात्मा, बुद्धात्मा बन जाती है।
आध्यात्मिक विकास यात्रा .
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