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इस तरह पुण्य रूप और पापकारी दोनों प्रकार की शुभ-अशुभप्रकृतियों की संख्या मिलने पर अंक बडा जरूर बन जाता है। परन्तु..मोहनीय कर्म में सब प्रकृतियाँ एक मात्र पाप की ही है। पुण्य की शुभ प्रकृति मोहनीय में एक भी नहीं है । क्या क्रोध-मानादि की कोई भी कर्म प्रकृति शभ अच्छि हो सकती है? जी नहीं ! कभी भी किसी एक भी कषायादि की प्रकृति को शुभ-पुण्य की नहीं कह सकते हैं। कहना तो क्या सोचना-विचारना भी उचित नहीं है।
दूसरी दृष्टि से देखने पर.. नाम कर्म की प्रकृतियों का कार्य क्षेत्र शरीर प्रधान है। शरीर बनाना, इन्द्रियाँ, गति, रूप, रंगादि बनाना आदि प्रकार का कार्य नाम कर्म का है। नाम कर्म सीधे आत्म गुणों का घात नहीं करता है । अतः वह अघाती कर्म के रूप में है। जब कि मोहनीय कर्म घाती कर्म है । यह सीधे आत्मा के यथाख्यात चारित्र गुण का ही घात करता है । यथाख्यात स्वरूप पर ही सीधा आक्रमण करता है और आत्मा के समतादि के स्वभाव को खतम करके उल्टा क्रोधादि कषायवाला (विभाववाला) बना देता है । अतः मोहनीय स्वभावकारक है । स्वभाव बनानेवाला है । शरीर-इन्द्रियाँ-गति-रूप रंगादि किसी पर भी मोहनीय कर्म का कार्य ही नहीं है। इसको शरीर रचना से कोई संबंध नहीं है। मोहनीय कर्म ने अपनी सीधि असर सीधे आत्मा के मूल गुणों पर ही रखी है । जबकि नाम कर्म आत्मा के गुणों पर कोई काम नहीं करता है । उसका कार्यक्षेत्र एक मात्र शरीरतंत्र
अब आप सोचिए ! कौन ज्यादा खतरनाक है ? नाम कर्म या मोहनीय कर्म? जो मकान की बाहरी दिवाल को तोड फोड जाय उसमें ज्यादा नुकसान होगा? या फिर जो घर में घुसकर तिजोरी तोडकर गहने आभूषण रुपए आदि सब चुरा जाय उसमें नुकसान ज्यादा है ? स्वाभाविक है । उत्तर में छोटा बच्चा भी यही कहेगा कि बाहरी दिवाल पर का नुकसान खास बडा नहीं है । परन्तु घर के अन्दर का नुकसान बहुत ज्यादा है । ठीक उसी तरह अघाती कर्मों में जो नाम कर्मादि है वे तो सिर्फ शरीर लक्षी है । आत्मा के बाहर जो शरीर है उस पर ही नुकसान-फायदा सब कर जाते हैं । वह छोटा नुकसान है । जबकि ..घाती कर्म मोहनीयादि जो सीधे आत्मा के मूलभूत गुणों पर घात करते हैं वह बहुत बड़ा ज्यादा नुकसान है। इसलिए साधना के क्षेत्र में भी पहले अघाति कर्मों को क्षय करने का लक्ष्य रखने के बजाय सबसे पहले घाती कर्मों को ही क्षय करने का लक्ष्य रखकर साधना के क्षेत्र में आगे बढना चाहिए।
आत्मशक्ति का प्रगटीकरण