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इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि.. मन आत्मा के अत्यन्त समीप में हैं । यह तो बात हुई ज्ञान की । ज्ञानावरणीय कर्म भी एक कर्म है। कर्म का एक विभाग है। ज्ञानावरणीय कर्म का उदय होकर क्षयोपशमानुसार आत्मा अपने अल्पाधिक ज्ञान को मनः पटल पर प्रगट कर सकती है तो फिर अन्य कर्मों के लिए कोई प्रतिबंध थोडा ही है ? दूसरी तरफ आत्मा पर लगे आठों कर्मों में सबसे ज्यादा प्रमाण में मोहनीय कर्म हैं । अन्य कर्मों की अपेक्षा भी हजारों लाखों गुना ज्यादा प्रमाण मोहनीय कर्म का है। तुलना में शेष अन्य सभी कर्मों का प्रमाण काफी कम है । उदाहरणार्थ यदि मोहनीय कर्म समुद्र के जितना है तो ज्ञानावरणीयादि उसकी तुलना में बडे विशाल तालाब के जितने प्रमाण में हैं ।
अब स्वाभाविक ही है कि इतने ज्यादा प्रमाण (मात्रा) में भी जब मोहनीय कर्म है । दूसरी तरफ बंध की स्थितियों में भी सबसे ज्यादा उत्कृष्ट बंध की स्थिति भी मोहनीय कर्म की ही है । अरे, ज्यादा तो क्या ज्ञानावरणीयादि अन्य सभी कर्मों की उत्कृष्ट बंध स्थितियों
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की अपेक्षा दुगुनी से भी ज्यादा है। ज्ञाना, दर्शना, अन्तराय, और वेदनीय कर्म इन चारों की उत्कृष्ट बंध स्थिति ३० को. को. सागरोपम प्रमाण है तो इनकी तुलना में मोहनीय कर्म · की उत्कृष्ट बंध स्थिति ७० कोडा. को. सागरोपम प्रमाण है। सोचिए दुगुनी तो सिर्फ ६० को. को. सा. प्रमाण ही होता लेकिन ६० से भी ज्यादा ७० को. को. सा. है । इससे सिद्ध होता है कि... मोहनीय कर्म की राग-द्वेष विषय - कषाय तथा मिथ्यात्वादि की प्रवृत्तियाँ कितनी ज्यादा भयंकर कक्षा की होगी ?
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यह तो हुई बात मोहनीय कर्म की बंध स्थिति तथा प्रमाण की, अब तीसरी दृष्टि में प्रकृतियों का भी विचार किया जाय तो ज्ञाना. की ५, दर्शना की ९, अन्तराय की ५ और वेदनीय की २ के सामने तुलना में मोहनीय कर्म की २८ कर्म प्रकृतियाँ सबसे ज्यादा हैं 1 शायद आप कहेंगे कि.. संख्या के आंकडों की दृष्टि से छलना करने पर.. नाम कर्म की १०३ कर्म प्रकृतियां हैं। परन्तु ये १०३ प्रकृतियाँ मूल १४ पिण्ड प्रकृतियाँ की अवान्तर प्रकृतियों का विस्तार करने पर १०३ की संख्या आती है। यदि मोहनीय कर्म के ४ कषायों का १६ किया और फिर अवान्तर कक्षा में जोडते - जोडते कषायों के १६x४ प्रकार आसानी से किये जा सकते हैं । इस तरह अवान्तर प्रकृतियों की संख्या मिलाने पर मोहनीय कर्म की संख्या का अंत भी बडा बन सकता है. ।
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लेकिन इससे भी ज्यादा आश्चर्य तो इस बात का है कि .. नाम कर्म की १०३ प्रकृतियों में से प्रकृतियाँ पुण्य की है। और प्रकृतियाँ पाप की है। पुण्य की प्रकृति शुभ है जो सुख रूप अच्छा फल देती है। जीव को पुण्य अनुकूल अच्छा सुखकर लगता है ।
आध्यात्मिक विकास यात्रा
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