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________________ मोहनीय कर्म के संस्कार जन्मजात__आपने संसार को अच्छि तरह देखा होगा। मनुष्य जन्म लेता है .. जन्म के बाद कोई ज्ञान अपने आप प्रगट नहीं होता है परन्तु मोहनीय कर्म के उदय के कारण क्रोध मानादि छोटे बच्चे में भी व्यक्त हो जाते हैं । झूठ-चोरी आदि के संस्कार बिना सिखाए भी आते हैं । जब कि ज्ञान बिना सिखाए क्यों नहीं आता है ? ज्ञान प्राप्त करने के लिए काफी परिश्रम उठाकर पढना पडता है । तब ज्ञान संपादन किया जा सकता है। परन्तु मोहनीय कर्म जन्य विषयवासना, क्रोधादि कषाय, हास्यादि, तथा मिथ्यात्व आदि एक भी बात संसार में किसी जीव को सिखानी नहीं पडती है । यही संसार का सबसे बडा आश्चर्य है। पूर्वकृत मोहनीय कर्म के उदय के कारण.. अपने आप क्रोधादि कषाय जागृत होते हैं। कर्म की प्रकृतियों का उदय होता है। और उदय होने पर जीव अपने आप क्रोधादि-हास्यादि सब चालू कर देता है । तीन-चार महीने का छोटा सा बच्चा भी अपनी माँ को दो थप्पड मारता है, आँखे निकालकर गुस्सा दिखाता है । सब कुछ करता है । यही सूचित करता है कि पूर्व में उपार्जित कषायों का उदय हुआ है। हास्यादि छ: - और कषायों के लिए उम्र का सवाल नहीं है। वे जन्मजात हैं। लेकिन मिथ्यात्व और विषय वासना के लिए उम्र का सवाल जरूर है। थोडी थोडी समझ (ज्ञान-बुद्धि) बढने पर आ जाने पर.. मिथ्यात्व के अन्दर के बीज अपने आप विचारों और वाणी में प्रगट होने लग जाता है । मिथ्यात्व मोहनीय कर्म की प्रकृति है। और उदय में आने पर सबसे पहले मन को पकडती है । आत्मा के सबसे ज्यादा नजदीक मन है। बाद में शरीर, और शरीर पर इन्द्रियाँ । मन विचार करने में सहायक साधन है । जैसे मछली के लिए पानी चलने में सहायक साधन है ठीक वैसे ही, मन विचार करने के लिए। आत्मा ने जैसे रहने के लिए घर के रूप में दो पैरों के खंभों का शरीर बनाया और उसमें आत्मा पूर्ण रूप से सर्व प्रदेशों में फैलकर रहती है । और उसी मकान के खिडकी दरवाजे के रूप में.. पांचों इन्द्रियां बनाई हैं। जिनके द्वारा देखने-बोलने आदि का व्यवहार हो सके। भाषा का प्रयोग करने के लिए वाचा वाणी बनाई और अन्दर ही विचारार्थ मनो वर्गणा के पुद्गल परमाणुओं को ग्रहण करके पिण्ड रूप में मन बनाया है । जिसका सोचने विचारने के लिए उपयोग कर रहा है जीव । विचार ज्ञानात्मक है । आत्मा का अपना ज्ञान विचार के माध्यम से मनः पटल पर प्रगट होता है । मन विचारतंत्र में सहायक साधन है । जो जड है। और विचार वाणी के रूप में परिवर्तित करके जीव भाषा प्रयोग द्वारा बोलकर देहतंत्र से बाहर निकालता है। इस तरह आत्मा का ज्ञान बाहर निकलता है। आत्मशक्ति का प्रगटीकरण
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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