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________________ लालकर .. द्वेष के विभाजन में क्रोध - और मान की गणना होती है। सैकडों बार प्रत्यक्ष देखा जाता है कि कई लोग जानबूझकर क्रोध - गुस्सा करके अपना कार्य करा लेते हैं । आँखे जोर से चिल्लाते हुए बोलकर अपना काम निकलवाकर कराके व्यक्ति संतुष्ट - राजी होती है । वाह मेरा काम हो गया। कई बार मान - अभिमान से, सत्ता के हुकम से काम निकलवाकर राजी होते हुए काफी देखे हैं। ये जीव द्वेष के दुर्भाव में क्रोध मान की प्रवृत्ति करके राजी होते हैं । अतः द्वेष करने में, रखने में जीव ने सुख मानकर उसे अपनाकर रखा है । राग से सुख पाने के लिए रागी को अपना मानने बनाने के लिए जीव ने लोक व्यवहार में भाषा के प्रयोग में अहं मम, मैं मेरा इन शब्दों का प्रयोग ज्यादा किया है । जीव इन शब्दों का बहुत ज्यादा प्रयोग करता ही आया है। वर्षों बीत गए। आप बहुत अच्छी तरह गौर से देखेंगे तो आपको स्पष्ट दिखाई देगा कि - अहं - मम, मैं और मेरा इन शब्दों का प्रयोग किये बिना शायद जीव का एक दिन भी नहीं बीता होगा। आज भी प्रतिज्ञा कर के देखिए कि .. १ दिन के लिए मैं “मैं और मेरा ” इन शब्दों का प्रयोग नहीं करूँगा । तो शायद यह प्रतिज्ञा बडी भारी लग जाए। १ दिन भी यह प्रतिज्ञा पालनी बडी समस्या खड़ी कर दे । उपाध्यायजी म. सा. ज्ञानसार ग्रन्थ में स्पष्ट कहते हैं कि .. “अहं ममेति मन्त्रोऽयं मोहस्य जगदान्धकृत्” “मैं और मेरा ” यह मोहनीय कर्म का मन्त्र है जो सारे जगत् को मोह में अन्धा बनानेवाला है। बस, यही मोहपोषक मन्त्र है । जीव को इस संसार में पुष्ट - मजबूत करता है । इसीलिए जीव इस मन्त्र का अजपाजप-रटण चालू करता है। और इसकी पूर्ति में राजी होता है । जब ऐसा लगे कि अब पूर्ति नहीं होती है तो द्वेष करके उसकी पूर्ति करके पुनः उसमें भी जीव राजी होता रहता है। परिणाम स्वरूप राग और द्वेष दोनों को जीव ने संसार में जीने के आवश्यक अनिवार्य अंग है ऐसा मान रखा है और हथियार के रूप में उनका उपयोग करता है । और वह भी सुख की धारणा में I भगवान ने कहा कि यह भी विपरीत धारणावाला मिथ्यात्व ही है। जो सर्वथा संस चलानेवाला, बढानेवाला, बिगाडनेवाला है, कई भव बढानेवाला है, दुःखदायी है उसे जीव ने आवश्यक अंग मान लिया है। जो छोड़ने जैसा है उसे जीव ने मंत्रवत् अपना लिया है और अजपाजप कर रहा है। यही सबसे खतरनाक वृत्ति है। ऐसा सर्वथा विपरीत आचरण ही मिथ्यात्वरूप है । आत्मशक्ति का प्रगटीकरण ८३९
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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