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विकास की पहचान है । गुणस्थान के ये सोपान और इन पर चढते हुए क्रमशःआगे बढना यही मोक्ष के समीप जाने का प्रमाण एवं प्रयास है । इसके सिवाय अन्य कोई विकल्प ही नहीं है । गुणस्थानों पर आगे बढना ही मोक्ष को प्राप्त करने का प्रबल पुरुषार्थ है । यही राजमार्ग है। राग में सुख या राग से सुख? राग में सुख और सुख में राग
. एक मोहनीय कर्म रूपी सिक्के के दो पहलु की तरह राग और द्वेष ये दो साधन हैं । जो संसार के अनन्त जीवों में से प्रत्येक जीवमात्र को प्राप्त हुआ है । संसारी जीव हो
और राग द्वेष युक्त न हो यह संभव ही नहीं है। इसी तरह राग-द्वेष युक्त हो और संसारी न हो यह कभी संभव ही नहीं है । अतः अनिवार्य रूप से संसारी जीव राग-द्वेष युक्त ही होते हैं। और... राग द्वेषग्रस्त जीव अनिवार्य रूप से संसारी ही होते हैं। राग-द्वेष ये मोहनीय कर्म का ही रूप है। अतः अपर पर्याय है, पर्यायवाची नाम है, ऐसा स्पष्ट कह सकते हैं । मोहनीय कर्म ही संसार है और संसार ही राग-द्वेषात्मक मोहस्वरूप है। __“मुह्यन्ति यत्र जनाः तद् मोहनीयं” जिसमें और जिसके कारण जीव मोहित होते हैं उसे मोहनीय कहते हैं । शायद राग का स्वरूप मोहनीय का है यह स्पष्टं ख्याल में आ . सकता होगा, परन्तु द्वेष भी मोहस्वरूप है इसका ख्याल आना मुश्किल है। थोडा सा ध्यान दीजिए.. राग की पूर्ति के लिए जीव द्वेष करता है । जब राग किया और राग पूर्ण नहीं हुआ या बीच में अवरोध आए या जैसी और जितनी धारणा राग की थी वह पूर्ण नहीं हुई अतः द्वेष में रूपान्तर हो जाता है मोह । आखिर तो राग की ही पर्ति करनी है। परन्तु क्या करना? राग की पूर्ति में बाधा आ रही है, तब जीव उसकी पूर्ति के लिए द्वेष करता है। राग यदि अनुकूल क्रिया है तो द्वेष प्रतिक्रिया है | One is Actionand another is reaction जीव ने मोहवश मोह के कारण जो कुछ किया वही राग और द्वेष है।
जीव ने मान रखा है कि... राग सुखकारक है । अनुकूल प्रवृत्तिरूप होने से राग सुखकारक लगता है । और द्वेष प्रतिकूल होने से दुःख रूप लगता है । वस्तु या व्यक्ति के संचय-संग्रह से सुख मिलता है या नहीं यह निश्चित नहीं है परन्तु वस्तु और व्यक्ति के राग, तीव्र राग से जरूर सुख मिलता है ऐसा जीव ने मोहवश मान रखा है। इसलिए “राग में सुख" या "राग से सुख" इन दोनों में जीव अपनी वृत्ति को समा कर बैठा है । राग में जीव ने सुख मान रखा है। और जब राग में सुख प्राप्ति की इच्छा पूर्ण हो जाती है तब राग से सुख प्राप्त होता है ऐसी धारणा निश्चित हो जाती है । और यदि राग की वृत्ति-प्रवृत्ति से अपेक्षित सुख नहीं मिला तो द्वेष करके भी जीव सुखी होने–बनने की इच्छा करता है।
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आध्यात्मिक विकास यात्रा