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मोक्ष लक्षी धर्म में ही.. तप-त्याग की साधना आती है । जिनके धर्म में मोक्ष का लक्ष्य ही नहीं है उनके धर्म में तप-त्याग की बात ही नहीं आती है । उल्टे भोग की प्रधानता रहती है। जिनका लक्ष्य मात्र स्वर्ग प्राप्ति, स्वर्गीय सुख की प्राप्ति का रहता है, उनके धर्म में भोग की प्रधानता रहती है । जहाँ भोग की प्रधानता रहती है वहाँ परिग्रह-संग्रह, सुख की साधन-सामग्रियों की भरमार और उनके भोग की तीवेच्छादि विपुल प्रमाण में रहती है। परिणाम स्वरूप अतृप्तेच्छा को तृप्त करने के पीछे, अपूर्ण मन को भरकर पूर्ण करने के लिए वह भोगेच्छा से सुखैषणा की वृत्ति में धर्म करता है। परिणाम स्वरूप मोक्ष के समीप पहुँचना तो दूर रहा परन्तु मोक्ष की दिशा में भी अग्रसर नहीं हो पाता है । जिन धर्मवालों ने अपने भगवानों को भी भोगमय, लीला अवतारी बताया है उनके जीवन में भी तप-त्याग की बात ही नहीं आती है । भोग प्रधान जीवन बन जाता है । लीला करना ही लक्ष्य बन जाता है। अतः परिणाम स्वरूप वे स्वयं भी मोक्ष मार्ग प्ररूपक नहीं बन सकते
और न ही उनके द्वारा उपदिष्ट मार्ग से मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है। ... मोक्ष का सीधा अर्थ है संसार से छुटकारा । यदि संसार के बंधन-दुःखादि से जो मुक्ति न दिला सके उसे धर्म कैसे कहना? रोग से मुक्ति न दिला सके उसे औषध कैसे कहना? अतः मोक्ष यदि समझ में न भी आ सके तो संसार के बंधन से मुक्ति इतना तो ख्याल में आ सकता है ? राग-द्वेष से मुक्ति; विषय एवं कषायों से मुक्ति... इत्यादि अर्थों को अच्छि तरह समझ सकते हैं ? अतः धर्म एक ऐसी औषधरूप होना चाहिए जो इन सबसे मुक्ति दिला सके । इन राग-द्वेषादि की ही वृद्धि करे, इन्हें ही बढाता रहे और इन्हें ही भोगने की लालसा बढाता रहे उसे धर्म कैसे कहना? अतः धर्म विरतिमय, विरक्तिस्वरूप, वैराग्यमूलक, पापादि की निवृत्तिप्रधान ही होना चाहिए। तो ही वह मोक्षसाधक बन सकेगा। अन्यथा संसार वर्धक बनेगा। ___मोक्षकलक्षी साधक ही सर्वथा विरति प्रधान धर्म आराध सकता है । कर सकता है। सच ही कहा है सर्वज्ञ भगवंतों ने कि..जो कुछ मोक्ष में प्राप्त होता है उसे यहाँ पर ही.. प्राप्त करना होता है । अनन्तज्ञानादि, वीतरागतादि सबकुछ यहाँ पर ही प्राप्त करना है और बाद में ही मोक्ष में जाना है। मोक्ष में जाकर कोई वीतरागतादि गुणों को प्राप्त नहीं करता है। जो भी किया जाता है वह सब यहाँ पर ही प्राप्त किया जाता है। बाद में मोक्ष में जाया जाता है । वीतरागतादि के गुणों के अनुरूप धर्म विरतिप्रधान, वैराग्यमय ही होना चाहिए। ऐसा धर्म ही मोक्ष के अनुकूल है। अन्य सब प्रतिकूल हैं । १४ गुणस्थानों पर। क्रमशः आरूढ होते जाना यह भी धर्म के क्षेत्र में प्रगति की निशानी है । आध्यात्मिक
आत्मशक्ति का प्रगटीकरण
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