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धर्म करना, या उनकी पुष्टि के लिए धर्म करना यह सर्वथा उचित नहीं है । कभी धर्म का स्वरूप ऐसा न बना लें जिससे विषय - कषायादि के भावों की पुष्टि हो। यह सर्वथा हानिकारक है ।
सच तो यह है कि.. धर्म विषय - कषायादि राग- -द्वेष का सर्वथा क्षय करनेवाला होना चाहिए। धर्म करने से हमारे राग-द्वेष क्षीण होने चाहिए। धीरे-धीरे कम होते होते सर्वथा समूल नष्ट होने चाहिए। प्राथमिक कक्षा में कम से कम विषय - कषाय, राग-द्वेष बिल्कुल पानी की तरह पतले जरूर होने चाहिए। हमारे राग- - द्वेष को स्पर्श करे, स्वभाव (विभाव) को जो स्पर्श करे और उसे कम करे उस लक्ष्य का ही धर्म करना चाहिए। तभी असर होगी । उदाहरणार्थ- सामायिक समता के गुण को बढाती हुई हमारे क्रोध कषाय को घटानेवाली है । प्रभू पूजा - दर्शन भक्ति मान-अभिमान के कषाय को घटाकर नम्रता बढानेवाला धर्म है । तप-त्याग की आराधना लोभ दशा घटाकर निर्लोभ भाव लानेवाला धर्म है । व्रत -पच्चक्खाण माया वृत्ति को कम करनेवाला धर्म है। तप तपश्चर्या त्याग की आराधना राग-भाव को घटानेवाला धर्म है । इस तरह राग-द्वेष को घटाए, विषय - कषाय को भी कम - क्षीण करे वह और वैसा धर्म होना चाहिए। वही सर्वश्रेष्ठ है । यदि इससे विपरीत होता है और राग- - द्वेषादि की, विषय - कषायादि की पुष्टि होती हो तो निश्चित रूप से उससे बचना ही चाहिए। ऐसा धर्म यदि करते भी हो अपना लक्ष्य दृष्टि बिन्दु बदलकर ही शुद्ध-सही दिशा का धर्म करना चाहिए। इस लक्ष्य का ही धर्म हमें मोक्ष की दिशा में आगे बढाएगा । और अन्तिम साध्य को सिद्ध करने में सक्षम - कामयाब होगा ।
मो = मोह, क्ष क्षय = मो + क्ष
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मोक्ष
यहाँ पर मोक्ष शब्द की व्युत्पत्ति अक्षरों को अलग करके करने पर, मोक्ष शब्द में प्रयुक्त 'मो' अक्षर मोहनीय कर्म का वाचक है। सूचक है। इस अर्थ में यहाँ प्रयुक्त किया जोय । तथा ‘क्ष’ अक्षर ‘क्षय' शब्द का सूचक - वाचक है। इस तरह मोहनीय कर्म का • क्षय करने के अर्थ को मोक्ष शब्द लक्षित करता है। ऐसी वाच्यार्थ ध्वनि से धर्म का लक्ष्य मोक्ष, और मोक्ष का लक्ष्यार्थ मोह कर्म क्षय का होता है। दोनों एक दूसरे के पूरक अर्थ हैं। धर्म मोक्षलक्षी ही होना चाहिए तथा मोक्ष की भावना के पीछे मोहकर्म का सर्वथा क्षय ही लक्ष्य होना चाहिए । धर्म करते समय ऐसा लक्ष्य बनाइये जिससे संपूर्ण रूप से मोहनीय कर्म का क्षय हो सके ।
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आध्यात्मिक विकास यात्रा