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________________ जाएंगे ? नहीं, कभी नहीं । कई भवी ऐसे भी होंगे जो अनन्त काल के बाद भी सम्यक्त्व नहीं पाएंगे । वे वैसे ही कोरे रह जाएंगे। इसी कारण वे संसार में सदा बने रहेंगे । I इसलिए मोक्ष पाने के लिए मात्र भव्यपना होना पर्याप्त नहीं है । भव्यपना होना ही चाहिए ... प्राथमिक आवश्यकता जरूर है, परन्तु मोक्ष प्राप्तिं के लिए सम्यक्त्व प्राप्त करना अत्यन्त आवश्यक है। बिना सम्यक्त्व के मोक्ष कभी भी प्राप्त होनेवाला ही नहीं है । भव्यत्व प्राप्त किया नहीं जाता है । इसके लिए कोई पुरुषार्थ करने की आवश्यकता ही नहीं है । क्योंकि यह पारिणामिक भाव से अनादिसिद्धं है । परन्तु सम्यक्त्व वैसा नहीं है । यह तो पुरुषार्थ साध्य है । अपूर्व शक्ति को प्रगट करनेरूप अत्यन्त पुरुषार्थ से जीव सम्यक्त्व प्राप्त कर पाएगा । अन्यथा नहीं । और वह भी सिर्फ भव्यात्मा ही इसमें सफलता प्राप्त कर पाती है । अभवी जीव अनन्तकाल में भी सम्यक्त्व प्राप्त कर ही नहीं सकता है । 1 I I इसलिए सम्यक्त्व के साथ मोक्ष की व्याप्ति अनिवार्य रूप से बैठती है। जो जो सम्यक्त्वी होता है वह वह अनिवार्य रूप से मोक्षगामी ही होता है । और जो जो मोक्षगामी या मोक्ष में गए हुए मुक्त जीव हैं वे सभी सम्यक्त्वी ही होते हैं । सम्यक्त्वधारी ही होते हैं। बिना सम्यक्त्व के कोई भी कभी भी मोक्ष में जा ही नहीं सकते हैं। भूतकाल के अनन्तकाल में कोई भी नहीं गया और भविष्य में कभी भी कोई नहीं जाएगा । इस नियम की अनिवार्यता समझकर मोक्षार्थी मुमुक्षु को सम्यक्त्व की प्राप्ति के लिए प्रबल पुरुषार्थ करना ही चाहिए । मोक्ष के लिए अयोग्य - मिध्यात्वी ! मिथ्यात्व से ग्रस्त जीव मिथ्यात्वी कहलाता है । मिथ्यात्व जरूर मिथ्यात्व मोहनीय कर्म प्रकृति है । इस कर्म प्रकृति के उदय में आने के कारण मिथ्यात्व उदय में आता है इस मिथ्यात्व कर्म के आवरणरूपी बादल उदय में आने के कारण जीव की परिणति वैसी मिथ्या - विपरीत हो जाती है। इसके कारण जीव मिथ्यात्वी बनता है । यह कर्मजन्य है । याद रखिए, जो जो भी कर्मजन्य होता है, कर्मकृत हो उसे कर्मक्षय से बदला जा सकता है । परन्तु अभव्य - भव्यपना कर्मजन्य नहीं पारिणामिक भाव के कारण सदा है, नित्य है । अतः उसे कदापि नहीं बदला जा सकता है । मिच्छत्तमभवाणं, तमणाइमणंतयं, मुणेयव्वं । भव्वाणं तु अणाइ, सपज्जवसियं तु मिच्छतं (सम्पत्ते ) ॥ सम्यक्त्व गुणस्थान पर आरोहण ४५१
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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