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अभव्यपने के साथ मिथ्यात्व का संबंध अनादि-अनन्तकालीन है । ठीक इसी तरह जातिभव्य जीवों के साथ भी. मिथ्यात्व का संबंध अनादि-अनन्तकालीन है।
जी हाँ, भव्य जीव के साथ भी मिथ्यात्व का संबंध अनादिकालीन जरूर है । जब से भव्य जीव का अस्तित्व संसार में है तब से वह मिथ्यात्वग्रस्त ही है । क्योंकि कर्मसंयुक्त ही होता है । संसारी जीव जब से संसार में है तब से कर्मग्रस्त ही है । कभी भी किसी भी क्षण वह कर्मरहित था ही नहीं। यदि सर्वथा कर्मरहित होता तो उसी दिन उसकी मुक्ति हो जाती । वह मुक्त गिना जाता । तो क्या मुक्तात्मा को फिर से कर्म लगे? यह कैसे कहा जा सकता है ? इसलिए संसार की प्रथम निगोदावस्था से ही जीव कर्मसंयुक्त ही माना गया है। जैसे सुवर्ण खदान में प्रथम क्षण से ही मिट्टी-रेती से मिश्रित ही माना गया है । वैसा होता ही है । इसी तरह जीव भी । जब निगोद की सर्वप्रथम अवस्था से ही जीव कर्मग्रस्त है तब उस कर्म में मुख्य कौन सी प्रकृति थी? इसके उत्तर में स्पष्ट है कि मिथ्यात्व मोहनीय कर्म से वह जीव अनिवार्य रूप से कर्मग्रस्त था। निगोद में भी मिथ्यात्व लिपटा हुआ था। इसलिए भव्य जीव अनादि मिथ्यात्वयुक्त है। लेकिन अभवी की तरह अनादि-अनन्त नहीं है । अनादि-सान्त है । भवी का मिथ्यात्व एक न एक दिन सम्यक्त्व की प्राप्ति से नष्ट होनेवाला है।
भवी-अभवी में सादृश्यता____ जैसे मूंग के रूप में सभी मूंग एक जैसे समान ही दिखाई देते हैं वैसे ही भवी-अभवी जीव सभी एक समान-एक जैसे ही होते हैं । एक जैसे ही दिखाई देते हैं। इसमें कोई फरक नहीं लगता है । जब तक भवी जीव सम्यक्त्व नहीं पाया है गाढ मिथ्यात्वग्रस्त होता है तब तक वह अभवी के जैसा ही होता है। यहाँ भव्य-अभव्य की दृष्टि से समानता नहीं है परन्तु मिथ्यात्व में समानता पूरी है। दोनों का मिथ्यात्व कर्म के उदय के कारण है। कर्मजन्य समानता होने के कारण उसके उदय में आने से प्रवृत्ति भी समानरूप ही रहेगी। मिथ्यात्व के उदय में रहने से दोनों मिथ्यात्वी मिथ्या-विपरीत भाषा-विचारधारा तथा कायिक प्रवृत्ति आदि समानरूप में ही रखेंगे-करेंगे। आत्मा-परमात्मा-मोक्षादि तत्त्वभूत विषयों में नास्तिकता की बुद्धि दोनों की एक जैसी ही बनेगी। मन वचन काया–तीनों की प्रवृत्ति एक जैसी समान ही रहेगी। मन से सोचना-विचारना, वचन से भाषा प्रयोग करना, और काया से शारीरिक चेष्टाएं प्रवृत्तियाँ करना । संसार में जीवों के.
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आध्यात्मिक विकास यात्रा