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________________ दिया इस मोहनीय कर्म ने और उस गुण का गला घोंट कर सबके प्रति द्वेषभाव दुर्भाव करना सिखा दिया इस मोहनीय कर्म ने। सज्जनता, जो आत्मा का गुण था उसे उल्टा करके मोहनीय कर्म ने दुर्जनता- दुष्टता सिखा दी जीव को । सर्व जीवों के प्रति समान दृष्टि रखने के आत्मा के स्वभाव को भी पलट दिया इस मोहनीय कर्म ने और वर्तमान के व्यवहार में ईर्ष्याभाव सिखा दिया। फलस्वरूप जीव ज्यादा ईर्ष्यालु-द्वेषी बन गया । परमार्थ भाव से जो परोपकार परायणता का आत्मा का स्वभाव था उसे भी इस मोहनीय कर्म ने दबा दिया और जीव को ऐसा स्वार्थी बना दिया है कि आज जीव एक नम्बर का स्वार्थी – स्वकेन्द्रित विचारधारावाला बन गया है। अब किसी भी काम या बात में सबसे पहले जीव एक मात्र अपना ही सोचता है । माध्यस्थ वृत्ति के एक छोटे से परन्तु बडे काम I मति गुण को भी मोहनीय कर्म ने नहीं छोडा उसे भी आत्मा के पास नहीं रहने दिया और वहाँ भी अपना पगडा जमा दिया, और जीव को कलह प्रिय बना दिया । थोडी देर के लिए भी जीव को शान्त न रहने दिया और कर्म ने अशान्त बना दिया । अरे, यह तो 'ठीक, परन्तु आनन्द भोगने की जीव की स्वतंत्रता भी छीन ली इस मोहनीय कर्म ने, बेचारे जीव को उदासीन, उदास बना दिया । अब उदास बनकर जीव अपने ललाट पर हाथ रख बैठा रहता है। प्रमोदभाव में दूसरों के गुणों को देखकर भी जीव जो राजी होता था वह स्वभाव भी बदल दिया इस मोहनीय कर्म ने, और परिणाम स्वरूप दूसरों के गुणों को देखकर ईर्ष्यालु बनकर निंदक बनने लगा जीव । अरे, दूसरों के सुख को सुखरूप देखने , परसुख में राजी होने के बजाय ईर्ष्या अदेखाई की वृत्ति में जीव को जलना सिखा दिया इस कर्म ने। अशोक-शोक- खेद रहित आनन्दि स्वभाव को भी छीन लिया इस मोहनीय कर्म ने, और बेचारे जीव को शोक, खेद विषाद करनेवाला उसी में डूबे रहनेवाला बना दिया । निश्चितता की मस्ती भी छीन ली और उद्वेग, चिन्ता करनेवाला बना दिया मोहनीय कर्म ने जीव को । निर्भर निडर - बन कर शेर की तरह घूमनेवाले जीव को मोहनीय कर्म ने भयग्रस्त, डरपोक बनाया मोहनीय कर्म ने। अरे, गंभीरता जो जीव का प्रशंसनीय गुण था उसे भी न रहने दिया इस भले कर्म ने और छिछरापन, हल्कापन, हास्यादि का स्वभाव सिखा दिया इस मोहनीय कर्म ने। और अब जीव गंभीर न रहकर बात-बात में हा.. हा ... ही . . . ही . . करता हुआ हँसता ही रहता है। अरे, परगुण प्रशंसा या अनुमोदना तो दूर रही परन्तु .. अब जीव ऐसा निन्दक बन गया है कुछ पुछिए ही मत । क्या मोहनीय कर्म की लीला है ? किसी भी वस्तु या व्यक्ति के सामने प्रिय - अप्रिय - पसंद-नापसंद का कोई सवाल ही खड़ा नहीं करना चाहिए जीव को लेकिन जीव इस मोहनीय कर्म के आधीन आत्मशक्ति का प्रगटीकरण ८३३
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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