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वृत्ति - प्रवृत्ति-प्रकृति
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१. वृत्ति जो मन में रहनेवाली है - वह मनोवृत्ति । २. प्रवृत्ति जो काया की प्रधानता से होनेवाली क्रिया आदि का व्यवहार है । ३. और प्रकृति यह कर्म की प्रकृति है । यहाँ प्रकृति जो स्वभाव अर्थ में हैं। आत्मा पर लगे हुए कर्म अपना स्वभाव अपनी प्रकृति अनुसार फल देते हैं । “पयई सहावो वुत्तो" प्रकृति स्वभावरूप है ऐसा कर्मग्रन्थकार महर्षि कहते हैं। आत्मा के अपने मूलभूत गुण जो ज्ञानादि हैं, क्षमा-समता - दयाकरुणा-सरलता-संतोषादि हैं वे आत्मा की प्रकृति (स्वभाव) हैं। परन्तु जब उन पर कर्म के आवरण छा जाते हैं .. तब वे कर्मावरण बादलों पर सूर्य के आवरण की तरह काम करते हैं । अब इन आवरण रूप कर्म के परदे (बादलों) में से ज्ञान - क्षमा समतादि का जो अंश, जितना भी अंश प्रगट हो गया फिर विपरीत रूप में प्रगट होंगे वे ही कर्म की प्रकृति के रूप में कहलाएंगे । विपरीत का अर्थ है जो गुण अपने मूल स्वरूप में जैसे गुणात्मक कक्षा में है वैसे न प्रगट होकर विपरीत रूप में अर्थात् दोष रूप में प्रगट होंगे। मोहनीय कर्म का विशेष रूप से यही काम है कि आत्मा के क्षमादि गुणों को सर्वथा विपरीत रूप में दोष रूप में ही प्रगट करना । इसलिए बाहरी व्यवहार में... क्षमा के बदले क्रोध ही आएगा। समता - शान्ति उपशमभाव के बदले क्रोध ही प्रगट होगा। अब मैत्री के - बदले वैर वैमनस्य की वृत्तियाँ ही प्रगट होगी। अब करुणा, दया के बदले कठोरता, क्रूरता - निर्दयवृत्ति ही प्रगट होगी। अब गुणानुराग, गुण दर्शन के बजाय दोषानुराग, दोष दर्शन की ही वृत्ति प्रगट होगी। परिणामस्वरूप जीव दोषग्राही, दोष देखनेवाला ही बनेगा । अब समभाव, उदारभाव पर के प्रति भी आनन्द - सन्तोषभाव प्रगट होने के बदले ईर्ष्या, द्वेष - मत्सरवृत्ति - अदेखाई की वृत्ति ही प्रगट होगी ।
मोहनीय कर्म आत्मा में पडी नम्रता की वृत्ति - विनय गुणभाव को दबाकर - उपने उदय काल में मद, मान, घमण्ड, अभिमान आदि प्रगट करेगा। और क्या हो सकेगा ? कर्म भी अपना स्वभाव (प्रकृति) दिखाएगा। सरलता आत्मा के गुण को छिपाकर अब मोहनीय कर्म उस जीव को मायावी - वक्र- कपटी विश्वासघाती धोखेबाज, छल-प्रपंची बनाएगा । सचमुच हम रोज ही संसार में यह और ऐसा स्वरूप देख रहे हैं। आत्मा के निर्लोभ संतोषभाव के गुण को छिपाकर जीव को लोभी, असंतोषी, तृष्णा और आसक्तिवाला बनाने का काम मोहनीय कर्म करता है । सब पर विश्वास रखने के स्वभाव को खतम करके अब अविश्वास रखना या विश्वासघात करने की देन मोहनीय कर्म की है। सभी जीवों पर प्रेम रखना, प्रेम करना आदि जो आत्मा का स्वभाव है उसे भी समाप्त कर
आध्यात्मिक विकास यात्रा
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