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जीव इस संसार में है । ये भाव पाप भी कर्म की उपमा पाते हैं। ये ही कर्म बंध में मूलभूत कारण बनते हैं । ये कषायादि ही मूलभूत वृत्ति .. स्वभाव रूप है। ये स्वभाव अर्थात् विभावरूप से कार्य करते रहते हैं । सब पापों का दोरी संचार यहाँ से होता है। सब पापों की मूल जड यहाँ पर है । सभी पापों द्वारा होनेवाले कर्म के बंध में हेतुरूप ये कषाय ही सहायक बनते हैं । दीर्घतम स्थिति बंध भी ये कषाय ही कराते हैं। ये भाव पाप-भाव कर्म रूप हैं । ये कर्मरूप भी हैं और पाप रूप भी हैं। दोनों रूप होने से पाप के समय पाप भी कराते हैं और कर्म के समय कर्म भी बंधाते हैं । तथा उदय रूप में आकर पुनः पाप की प्रवृत्ति कराते रहते हैं । पुनः कर्म बंधाते रहते हैं। इस तरह अनन्त भव परंपरा का संसार चलता ही रहता है ।
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कुछ वाचिक पाप
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१२ वाँ, १३ वाँ, और १४ वाँ इन तीन पापों का जो विचार अभी-अभी पीछे किया है ये वचन योग की बहुलतावाले पापस्थान हैं। बिना बोले इनको चलता नहीं है । आप ही पोचिए ! कलह में नहीं बोलेंगे तो झगडा होगा कैसे ?, और नहीं बोलेंगे तो अभ्याङ्खगन— आरोप कैसे किस पर लगा सकेंगे ? पैशून्य पाप में भी चुगली खाने के लिए बिना बोले चलेगा ही नहीं ? १५ वे रति- अरति का पाप है । प्रिय - अप्रिय, पसंद-नापसंद के पाप की जडे मन में हैं। फिर भी दुनिया में व्यवहार बोलने से ही होगा । रति राग जन्य है, और अरति द्वेष जन्य है । इस तरह १५ वे पाप में राग- - द्वेष दोनों ही इकट्ठे हो गए हैं । यद्यपि दोनों मात्रा में अल्प स्वरूप में है । १० वे और ११ वे पापस्थान पर जब वे राग-द्वेष स्वतंत्र रूप से पूरी तरह रहते हैं, तब जो जितने प्रमाण में रहते हैं उतने प्रमाण में रति-अरति में नहीं है । वैसे यहाँ रति में राग है परन्तु अल्प प्रमाण में है । प्रत्येक वस्तु जो भी सामने आई उसमें पसंद - प्रिय - अनुकूल की इच्छा होती है। उसी समय व्यक्ति भी प्रिय-पसंदगी का आधार बनती है । इस तरह वस्तु और व्यक्ति दोनों के निमित्त राग की पसंदगी होना, अच्छा लगना । फिर वस्तु और व्यक्ति दोनों के प्रति उसी क्षण अप्रीति-नापसंदगी भी होती है। यह द्वेष के कारण संभव है ।
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वैसे मोहनीय कर्म की २८ प्रकृतियों में नोकषाय के विभाग में हास्यादि षट्क की ६ प्रकृतियों में रति की एक स्वतंत्र प्रकृति है और अरति की भी एक स्वतंत्र प्रकृति है । एक तरफ तो इन पूर्व कर्मों का उदय होने के कारण जोर है। और दूसरी तरफ संसार में वैसे निमित्त भी मिलते हैं। योग संयोग भी खडे होते हैं । अतः वैसी प्रवृत्ति भी चलती रहती है।
आत्मशक्ति का प्रगटीकरण
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