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________________ ऐसा गुलाम बन चुका है कि . . प्रत्येक वस्तु एवं व्यक्ति के सामने रति-अरति, पसंद-नापसंद अच्छा-खराबका व्यवहार करता रहता है । विश्व के सभी छोटे बड़े जीवों की समानरूप से भेदभाव रहित, मैत्री भाव से मित्ररूप तथा भ्रातृभाव से आदि रूप में देखकर चलना था। जिससे विश्वमैत्री तथा विश्वभ्रातृत्व की भावना विकसित होती थी। इसके बदले इस कर्म ने विपरीत-उल्टे भाव ही पैदा कर दिये और विश्वशत्रुभाव, सबके प्रति द्वेष भाव, सगे भाई को भी भाई रूपमें न मानने देने की वृत्ति इस कर्म ने सिखा दी। अब विश्वमैत्री, विश्व प्रेम, वैश्विक भाईचारा कहाँ से संभव रहेगा? सर्वथा असंभव लगता है। निर्विकारी बनने के बजाय विकारी-कामी बना दिया मोह ने और स्त्री-पुरुषों को कामभोगी–विषयी-विलासी बना दिया है। ____ आखिर इस मोहनीय कर्म की कितनी पहचान करानी....और क्या क्या पहचान करानी यह मोहनीय कर्म जो समस्त संसार पर छाया हुआ ही अपनी जाल और पगडा जमाकर बैठा हुआ है । इसके नाटक से कौन अन्जान-अपरिचित है ? अरे । पूरा संसार एक मात्र मोहनीय कर्म का ही प्रत्यक्ष उदाहरण रूप है । समुद्र के जितना विशाल और गहरा यह मोहनीय कर्म पूरे संसार पर अपनी जाल बिछा कर बैठा है । समूचे विश्व के अनन्त जीवों को अपनी जाल में फंसाकर भारी पगडा जमा कर बैठा है । इतनी मजबूत पक्कड रखी है कि एक भी जीव मोह की जाल से (छूट) छटक न जाय इसका सघन ध्यान रखता है यह कर्म। कर्म जाल से मुक्ति___हाँ, अब आपने इस मोहनीय कर्म का स्वरूप समझ लिया होगा? शायद अच्छी तरह पहचान लिया होगा मोहनीय कर्मको । अरे, वैसे इस मोहनीय कर्म को देखने समझने पहचानने के लिए बाहर जाने की जरूरत नहीं है यह तो प्रत्येक जीव के अनुभव की प्रत्यक्ष चीज है । संसार के सभी जीव इससे ग्रस्त हैं, इसकी पक्कड में फसे हुए हैं । अतः सबके अनुभव का विषय है। अतः सभी जीव मोहनीय कर्म का स्वाद अच्छी तरह चख चके हैं। इसकी स्थिति को अच्छी तरह भुगत रहे हैं । मोहपरवशता मोह पराधीनता को अच्छी तरह भुगत रहे हैं, इसकी असर के नीचे अच्छी तरह दब चुके हैं। अनादि-अनन्त काल से अनन्त ही जीव इसके बंधन को भोग रहे हैं। . . आखिर जब तक इस मोहनीय कर्म की जाल से मुक्त होने का विचार नहीं किया जाएगा.. छुटकारा पाने का कोई उपाय नहीं आजमाया जाएगा तब तक इस जीव की ८३४ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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