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________________ संस्कृति का नाश करने की सुव्यवस्थित योजना है । हाय ! अफसोस ! हमारी आर्य प्रजा इस विश्वासघात को भी न समझ सकी और आज विनाश के किनारे खडी रहकर भयानक गर्त में गिरती जा रही है। यह दुष्परिणाम-टी.वी. सिनेमाओं के दुश्चक्र के कारण है। अभी भी इससे निपटा जा सकता है । परन्तु देश की प्रजा के साथ गद्दारी करनेवाले स्वार्थी नेताओं से और क्या अपेक्षा रखी जा सकती है? इससे अच्छा तो अब यह है किकर्मशास्त्रों का अभ्यास करके- सम्यग् शिक्षा प्राप्त करके अपना जीवन स्वयं सुधारें। अब सरकार और सरकारी नेतागणों से अपेक्षा रखनी भूल समझकर उनके साथ और सहयोग की अपेक्षा छोडकर प्रत्येक जीवों को स्वयं अपने आप ही समझकर सुधरना चाहिए। पाँचों इन्द्रियों के २३ विषयों के सैंकडों साधन संसार में उपलब्ध हैं। मौजूद हैं। और दिन-प्रतिदिन विज्ञान युग इसकी ओर भरमार खडी करता ही जाएगा। शायद हिमालय के जितना ढेर भी खडा कर दे भौतिक साधन-सामग्रियों का। लेकिन याद रखिए सभी साधन एक मात्र जड है । भौतिक-पौद्गलिक है । ये कोई न तो सुख-शान्ति देनेवाले हैं, और न ही आनन्द-मंगल देनेवाले हैं। इनका कैसा उपयोग जीव करता है उस पर निर्भर है । जड का कैसा उपयोग करना? कितना उपयोग करना यह तो जीव पर निर्भर है । जीव के सम्यग्ज्ञान सच्ची श्रद्धा पर निर्भर करता है । यदि जीव थोडे बहुत भी सम्यग्ज्ञान,त्यागियों-वैरागियों की संगत के रंग से रंगा हुआ हो तो ही बचने की संभावना रहती है । अन्यथा बहुत मुश्किल है। अतः सबसे पहले यह निर्णय कर ही लेना चाहिए कि हमें हमारी पाँचों इन्द्रियों का उपयोग ज्ञान की वृद्धि के लिए ही करना है । मोह की वृद्धि के लिए तो भूल से भी नहीं। आखिर याद रखिए कि... मन भी जड ही है । इन्द्रियाँ सभी जड हैं । और शरीर भी सर्वथा जड ही है । इसी तरह बाहरी पदार्थ-वस्तुएँ सभी जड हैं । इन सब जड के बीच में एक मात्र जीवात्मा ही चेतन है । चेतन-जीव ही कर्ता है । ज्ञान का अधिष्ठाता भी चेतन ही है । अतः यही सभी जडों का उपयोग एवं उपभोग करता है । बस, अब इन सब पदार्थों की उपयोगिता समझकर आवश्यकतानुसार ज्ञान प्राप्त कर लेना चाहिए । परन्तु मोहदशा को आगे करके राग-की तीव्र भावना के कारण मोह की वृद्धि के लिए उनका उपयोग न करें । जैसे टी.वी. का उपयोग मात्र ज्ञान की वृद्धि के लिए ही किया जाय तो दुनिया में लाखों-करोडों लोगों में ज्ञान बढेगा। लेकिन मनोरंजन छोडना चाहिए। विज्ञान के सुखप्रदायक सभी साधनों का उपयोग इसी दृष्टि से ज्ञान के लिए करने का रखें तो बहुत ८२८ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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