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________________ भाव ही सच्चा मोह है। लेकिन अपने रागभाव को स्थिर रूप से टिकाए रखने के लिए जीव द्वेष का भी आश्रय लेता है। जैसे एक गाय को अपने बछडे का मोह है, वह उसे अपना मानकर राग बुद्धि से ममत्वभाव में रहती है। मोहदशा में राजीपना अच्छा रहता है। अच्छा सुहावना लगता है । परन्तु कोई उस बछडे को पकडने आए तो गाय भी अपना द्वेषभाव बढाकर क्रोधादि व्यक्त करते हुए पकडनेवाले को मारने आएगी। सींग को दिखाकर सामने करके मारने आती है। ___ठीक उसी तरह मनुष्य में यह स्वभाव अपने उपार्जितं मोहनीय कर्म के कारण है। एक माँ भी अपने संतान की रक्षा करने के लिए द्वेष भाव को दूसरों की तरफ बढाकर क्रोधादि करती है। क्रोध का आश्रय भी जीव अपने मोह की रक्षा करने के लिए लेता है। इसलिए द्वेष यह भी मोहनीय कर्म के एक ही सिक्के की दूसरी बाजू है । एक बाजु राग तो दूसरी बाजु द्वेष । परन्तु सिक्का तो आखिर एक ही है । संसार की समस्त प्रवृत्तियों की गणना यदि करने भी बैठे तो क्या संभव है? जी नहीं ! हजारों-लाखों प्रकार की प्रवृत्तियाँ हैं । परन्तु सब का वर्गीकरण करके उन्हें एक मात्र मोहनीय कर्म में समाविष्ट की जा सकती है । क्योंकि सभी प्रवृत्तियाँ मात्र राग-द्वेष की ही हैं । जैसा कि हम पहले देख आए हैं उस हिसाब से मोहनीय कर्म की प्रमुख ४ दिवालों-दरवाजों की तरह मुख्य ४ भेद हैं । उन चारों प्रकार की प्रवृत्तियों के भेद करने जाय तो लाखों प्रकार की प्रवृत्तियाँ एक मात्र मोहनीय कर्म की है। प्रवृत्तियों के साथ पाप 'निश्चित ही है कि मोहनीय कर्म की २८ प्रकृतियों के आधार पर... जो भी और जैसी भी प्रवृत्तियाँ जीव करता है वे सब पाप ही पाप बंधानेवाली होती है। इनमें एक भी पुण्योपार्जन करानेवाली शुभ प्रवृत्ति है ही नहीं । इसलिए मोहनीय कर्म की प्रवृत्तियों का आचरण करने से किसी भी प्रकार का शुभ पुण्य बंधनेवाला ही नहीं है। अतः १८ पापस्थानों का... सबका समावेश अन्य किसी कर्म में न करते हुए एक मात्र मोहनीय कर्म में ही किया है। आश्रव में भी योगाश्रव है । और बंधहेतु में भी योग बंध हेतु है । इन दोनों में योग समानरूप से हैं । मन-वचन और काया ये तीन योग हैं । चेतनात्मा को संसार में जीने के लिए... रहने के लिए मन, वचन और काया के तीन योगों की पूरी आवश्यकता रहती ८२४ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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