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________________ I १) कषाय मोहनीय जो क्रोधादि कषाय कराता है । २) नोकषाय मोहनीय जो हास्यादि की चेष्टाओं द्वारा हँसाने - रुलाने आदि की प्रवृत्ति कराता है । तथा ३) तीसरा विभाग है वेद मोहनीय कर्म का । यह विषय-वासना काम - संज्ञा - मैथुन क्रिया रतिभाव, काम क्रीडादि राता है। I water. इस तरह एक मकान की चार मुख्य दिवालों या चारों दिशा के दरवाजों की तरह . मोहनीय कर्म की चार दिवालें - ४ दिशा की प्रवृत्तियाँ मुख्यरूप से बडी है । - १) मिथ्यात्व की, २) दूसरी कषाय की, ३) तीसरी नोकषाय की, और ४) चौथी - विषय वासना की । बस, संक्षिप्त में इन चार प्रकार में पूरे मोहनीय कर्म का समावेश आसानी से किया जा सकता है । यदि इसे और संक्षिप्त में सारांश रूप से ही कहना हो तो इस तरह भी कह सकते हैं कि... “विषय + कषाय = संसार ।” जैसे रसायन शास्त्र में - H2O H हाइड्रोजन के २ भाग, और 0 ओक्सीजन का एक भाग दोनों मिलने से पानी बनता है । ठीक उसी तरह विषय और कषाय इन दोनों के मिलने से सारा संसार बनता है । इन दोनों को यदि शास्त्रीय भाषा में कहना हो तो - राग + द्वेष = संसार । ज्ञानियों ने विषय को रागमूलक, रागप्रधान कहा है । तथा कषाय को द्वेषमूलक - द्वेषप्रधान कहा है। बस, संक्षिप्तीकरण की प्रक्रिया में इससे ज्यादा और संक्षिप्त क्या हो सकता है ? इसलिए अन्त में समस्त बातों का निचोड निकालकर ज्ञानियों ने एक शब्द - “ मोह" मोहनीय का देकर नामकरण “मोहनीय” कर्म का किया है । " मुह्यन्ति यत्र जनाः तद् मोहनीयः " जहाँ जीव मोहित हो जाते हैं वह मोहनीय कर्म है । 1 संसार की समस्त प्रवृत्तियाँ मोहमूलक है T चाहे आप मिथ्यात्व का आचरण करें, या भले ही आप कषायों का आचरण करें । आप विषयवासना का सेवन करें या चाहें आप हास्यादि नोकषाय की प्रवृत्ति करें, लेकिन सभी मोहमूलक, मोहप्रधान ही हैं। मोह-अपना ममत्व जिसमें भरा हुआ है। यदि द्वेष के दुर्भाव में आकर जीव भले ही क्रोध-मान का सेवन करता हो फिर भी क्रोध करने के पीछे स्वकार्य, अपने हेतु को साधने का आशय मोह का जरूर रहता है । यदि वह हास्यादि की चेष्टाओं में नोकषाय के आधीन होकर हँसने, रोने आदि की भी प्रवृत्ति करता है तो भी उसमें अपना कुछ साधने की उसकी वृत्ति जरूर रहती है। वही मोह-ममत्व बुद्धि है । मेरा - पर का मोह दिखाकर जीव को अपनी इच्छा पूरी करनी है । मोहभाव—आसक्तिभाव, तृष्णा भाव, अतृप्ति का भाव, असंतोषने की वृत्ति आदि है । राग आत्मशक्ति का प्रगटीकरण ८२३
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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