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डाले, अवरोध पैदा किया, विघ्न खडे किये तो परिणाम स्वरूप अन्तराय कर्म का भी बंध होगा। और क्रोध की अशुभ प्रवृत्ति करने से अशुभ नामकर्म (पापरूप) का बंध होगा। बाद में उदय के कारण उस बांधनेवाले जीव को सौभाग्य, यश, कीर्ति, आदेयपना, आदि शुभ पुण्य प्रकृतियाँ न मिलकर अशुभ ही मिलेगी। देखिए इस तरह मोहनीय कर्म की २८ प्रकृतियों के उदय की अभी तक तो मात्र एक कषाय मोहनीय की क्रोध की प्रकृति का परिणाम देखा है । जो आठों कर्म बंधाता है । इसी तरह, मान, माया, लोभ, आदि सभी प्रवृत्तियाँ देखने पर पता चलेगा कि.. मोहनीय की प्रवृत्ति करने पर आठों कर्म का बंध कैसे होता है ? यह जानकारी प्रत्येक साधक को रखनी ही चाहिए। मोहनीय कर्म की प्रवृत्तियाँ____ मोहनीय कर्म की २८ प्रकृतियाँ हैं । पहले गुणस्थान पर २८ ही सभी सत्ता में है, सभी बंध में भी है, और सभी उदय में भी है । उदय में होने के कारण जीव उदय के अधीन होकर वैसी चेष्टाएँ-क्रिया-प्रवृत्ति करता है । जैसे पागलखाने में पागल मरीजों को आपने कभी देखा ही होगा? वे बिचारे तथा प्रकार के मानसिक रोग के कारण ऐं, बैं, आ.. हा. . ही.. ही.., इत्यादि सतत बोलते-बकते ही रहते हैं । शरीर की भी कुछ चेष्टाएँ-प्रवृत्तियाँ निरंतर एक जैसी ही करते रहते हैं। ठीक उसी तरह यह संसार एक पागलखाने जैसा है। सभी मोहनीय कर्म के उदयरूप रोग के कारण विषय-कषायादि चेष्टा-क्रिया-प्रवृत्ति करते ही रहते हैं। सभी जीव इस रोग से ग्रस्त हैं । अतः ज्ञानियों की दृष्टि में सचमुच यह संसार पागलखाने जैसा ही है।
यदि मोहनीय कर्म की २८ प्रकृतियों के अनुसार प्रवृत्तियाँ-क्रियाएँ देखने जाएं तो अनेक प्रकार की भिन्न भिन्न प्रकार की क्रियाएँ हैं । परन्तु संक्षिप्त में स्थूलरूप से देखने पर...
(१) १) मिथ्यात्व मोहनीय, २) सम्यक्त्व मोहनीय, और ३) मिश्र मोहनीय इन तीन-दर्शनमोहनीय कर्म की प्रकृतियों के उदय के कारण-जीव विपरीत ज्ञान, उल्टी विचारधारा, अश्रद्धा, अंधश्रद्धा, मिथ्या विचारधारा, शंका, संदेह, भ्रम-भ्रान्ति तत्त्वों को सर्वथा न मानना, और बिल्कुल उल्टी वृत्ति-प्रवृत्ति-भाषादिवाला बनता है। तथा कदम-कदम पर वैसी प्रवृत्ति करता ही रहता है। - (२) दर्शन मोहनीय कर्म मान्यता, मानने, के विषय में है । जबकि चारित्र मोहनीय कर्म... क्रिया-प्रवृत्ति-चेष्टाएँ करानेवाला है । चारित्र मोहनीय में तीन विभाग मुख्य हैं
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आध्यात्मिक विकास यात्रा