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________________ ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय अंतराय मोहनीय/ ...नाम: गोव चनय आयुष्य फिर आगे आठों कर्मों का बंध होता है । अतः आठों कर्मों के आश्रव का आधार मोहनीय कर्म की प्रवृत्ति पर निर्भर करता है । बिना उसके संभव ही नहीं है । सब प्रकार की प्रवृत्तियाँ जो १८ पापस्थानकी क्रियाएँ है, उनके कारण सबसे पहले तो मोहनीय कर्म बंध होगा । और बाद में सातों कर्मों का बंध होता रहता है । इस तरह आठ कर्मों का आधार मोहनीय कर्म है । हिंसादि १८ पापस्थानक जैसे वृक्ष के मूल में पानी डालने से जडों द्वारा पूरे वृक्ष में सर्वत्र पहुँच जाता है। पत्तों - फूलों - और फलों तक में सर्वत्र विभाजित होकर प्रमाण में पहुँच जाता है । ठीक इसी तरह मोहनीय कर्म की ही आश्रव पद्धति के सेवन से अन्य सातों कर्मों का बंध होता 1 उदाहरण के लिए क्रोध कषाय मोहनीय की प्रकृति है । और क्रोध कषाय बहुत ज्यादा करने से नरक गति के आयुष्य का बंध होगा । और क्रोध किसके सामने करते हैं ? क्रोध में आप किसको सुनाते हैं? यदि गुरुजन, वडील वर्ग, माता, पिता, या और बडों को, तो उसके कारण नीच गोत्र कर्म के बंध की संभावना ज्यादा रहती है। इसी तरह यदि क्रोध करते समय गाली-गलौच, गंदे अपशब्द बोलकर किसी का दिल दुखाते हैं किसी का मन दुःखी करते हैं, संताप पैदा करते हैं तो निश्चित ही समझिए कि ... अशाता वेदनीय कर्म बांधते हैं । जिसके उदय से बांधनेवाले को मानसिक अशाता, अशान्ति - व्याधि आदि सहन करनी पडेगी । यदि विद्यागुरु, शिक्षक, गुरु महाराज आदि बडों के सामने क्रोध करके उन्हें अन्ट - सन्ट बककर कुछ भी जैसा - तैसा सुनाकर यदि अपमान किया तो परिणाम यह आएगा कि ज्ञानावरणीय - और दर्शनावरणीय कर्म दोनों कर्मों का बंध एक साथ में होगा । और जीव को ज्ञान, बुद्धि की कमी तथा इन्द्रियों की क्षीणता, कमजोरी या विकलता आदि का फल भुगतना पडेगा । 11 1 1 क्रोध स्वयं ही कषाय मोहनीय की प्रवृत्ति है । अतः क्रोध करने से दुबारा वापिस मोहनीय कर्म का बंध तो होगा ही । इसी तरह क्रोध करके आपने किसी के मार्ग में रोडे आत्मशक्ति का प्रगटीकरण ८२१
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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