SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 414
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संसार का सर्वथा प्रलय हो जाएगा, और प्रलय करने के लिए किसी को अवतार लेना पडेगा, कोई प्रबल शक्तिशाली अवतारी पुरुष आकर संसार का प्रलय-संहार करेगा इत्यादि प्रकार की समस्त मान्यताएं कपोल-कल्पित निरर्थक सिद्ध होती है । बिल्कुल ही युक्तिसंगत नहीं है । अज्ञानग्रस्त है ।। आश्रव के पश्चात् बंध आश्रव क्रियात्मक है। और बंध हेतुरूप कारणरूप है। जैसे हम चलते हैं यह क्रिया है, परन्तु कहाँ चलना? क्यों चलना? कितना चलना? कैसे चलना? कहाँ तक चलते ही रहना? किस दिशा में चलना? किस रास्ते चलना? किस काम के लिए चलना? आदि अनेक विषय चलने की क्रिया का हेतु कारण निश्चित करते हैं। यदि घूमने-टहलने जाते हैं तो चलना अलग ढंग का होता है । घर से निकलकर चलने की क्रिया तो करते हैं परन्तु हेतु मनमें निर्धारित होता है कि... दुकान जाना है । या विदेश जाना है। या मंदिर जाना है। इत्यादि जो और जैसा हेतु निश्चित होता है तदनुरूप क्रिया-प्रवृत्ति होती है। अतः आश्रव में क्रिया-प्रवृत्ति की प्रधानता है जबकि बंध में हेतु–कारण की प्रधानता है। कषायादि आश्रव में और बंध में दोनों में समान रूप से हैं फिर भी दोनों में अन्तर है। कषाय की प्रवृत्ति-क्रिया भी होती है और उसी में हेतु भी निश्चित रूप से होता है। यदि एक गृहिणी क्रोध कषाय की क्रिया करती है। तो उसी समय कषाय का हेतु भी साथ ही निर्धारित होता है । किस पर बच्चे पर क्रोध करना है? कितने प्रमाण में क्रोध करना? दिल में हितभाव रखकर क्रोध करना है । उसे सुधारने के हेतु से क्रोध करना है । इत्यादि आशय-हेतु से क्रोध करती है, उसके आधार पर क्रोध की तीव्रता, मन्दता आदि कम-ज्यादा मात्रा का ख्याल रहता है । उस प्रमाण में जीव करता है । इसलिए किया जाता क्रोधादि कषाय आश्रव की प्रवृत्तिरूप भी है और वही कषाय बंध हेतु रूप भी है। तभी कर्म का बंध होता है । आश्रव क्रियात्मक होने के कारण पहले होगा और बंध हेतुरूप होने के कारण, बाद में होगा। १८ पापों से ८ कर्म का बंध- . १८ पाप की प्रवृत्तियों के करने से ८ प्रकार के कर्मों का बंध होता है । १८ प्रकार के पाप मोहनीय कर्म के कारण प्रवृत्तिरूप में होते हैं। उदय के कारण होते हैं । और १८ पाप की आश्रवात्मक प्रवृत्तियों के कारण मूलभूत मोहनीय कर्म का बंध होता है। और ८२० आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy