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________________ किये हुए कषायों के कारण उपार्जित कषाय मोहनीय कर्म के उदय से इनका उदय होता है। और दूसरी तरफ वर्तमान में वैसे योग-संयोग-निमित्त मिलते हैं । जिससे ये सभी पुनः भडकते हैं । पुनः वैसी प्रवृत्ति होती है । ये कषाय तो हमारे खून में मिल चुके हैं । इन कषायों में क्रोध करना, मान-अभिमान घमण्ड करना, माया, प्रपंच-छल-कपट किसी के साथ विश्वासघात करना, ठगवृत्ति आदि की प्रवृत्ति करना, तथा लोभ की प्रवृत्ति में, अति संग्रह करना, इकट्ठा करते जाना या प्राप्ति की तृष्णा आदि की प्रवृत्ति निरंतर चलती ही रहती है। राग-इच्छा-मोह-आकर्षण आदि के रूप में काफी प्रमाण में बढ़ता ही जाता है । द्वेष भी राग के सिक्के की दूसरी बाजू है । यह भी चलता ही रहता है। यदि किसी के साथ मित्रता बढ़ती है तो दूसरे के साथ दुश्मनी भी होती है । शत्रुता भी बढती है । एक ही गाडी के दो पहिए की तरह ये राग-द्वेष साथ ही चलते रहते हैं और प्रवृत्ति करते रहते यह कषायाश्रव भी है और कषाय का बंध हेतु भी है । साथ ही कषायों में राग-तथा द्वेष के अंतर्गत ऐसे मीठे-खट्टे, कडवे स्वाद साथ ही पडे हैं कि वे सबको अपना केन्द्र बना लेते हैं । इन कषायों से ही इन्द्रियाश्रव, अव्रताश्रव, तथा क्रियाश्रवादि चलते रहते हैं। २५ प्रकार की सभी क्रियाएँ राग-द्वेष ग्रस्त हैं । इसी तरह बंध हेतुओं में से-मिथ्यात्व, अविरति और प्रमाद कषाय के कारण बढते हैं, होते हैं । अतः जब जब कषायादि की प्रवृत्ति होती है तब आश्रव भी होता है और कर्म का बंध होता ही रहता है। पूर्व के बांधे हुए कर्मों का तीव्र उदय, उस उदय के कारण वैसी हरकतें... प्रवृत्ति करना आदि चलता ही रहता है । यही आश्रवरूप प्रवृत्ति है । बस, इसीके साथ हेतु का मिलना और फिर कर्म का बंध होना... यह क्रम संसार में निरंतर चलता ही रहता है। कर्म बांधना, उनका उदय होना, उदयकाल में पुनः वैसी प्रवृत्तियाँ करते रहना, तथा पुनः कर्म बांधते रहना यही संसार का क्रम है। जो अनादि-अनन्तकाल से चलता ही रहता है। सच ही कहा है कि पुनरेव पापं पुनरेव कर्म, पुनरेव कर्म पुनरेव पापं । पाप-कर्म संयोगेन, संसारो चलति सदा ।। -फिर से पाप करते ही जाएं, पाप की आश्रव-प्रवृत्ति चलती ही रहे, उससे पुनः कर्म का बंध होता ही रहे, उस बंधे हुए कर्म के उदय से जीव पुनः वैसी पाप की प्रवृत्ति करता ही रहता है। इस प्रकार पाप कर्म के योग-संयोग से यह संसार चक्र की तरह सदाकालचलता ही रहता है। पाप और कर्म अनादि-अनन्त शाश्वत सिद्ध होते हैं । अतः आत्मशक्ति का प्रगटीकरण
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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