________________
कोई अतिशयोक्ति नहीं लगती है । अब आप ही सोचिए ऐसे भयंकर वासना के वातावरण में भला कोई इससे सर्वथा विमुख होकर बचकर जीए यह कितना असंभव है ? बहुत ही मुश्किल है। हाश!..जो भी आत्मा इस पाप से बचकर सर्वथा विमुख-विरक्त होकर जी सकते हो, रह सकते हो उन्हें... लाख-लाख..वंदन हो । अरे ! हम तो क्या देवलोक में... इन्द्र महाराज भी अपने इन्द्रासन पर बैठने से पूर्व “नमो बंभवयधारिणं” ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करनेवाले ब्रह्मव्रत धारियों को नमस्कार करते हैं । एक तरफ तो आग लगे
और दूसरी तरफ आग को रूई या सूखी घास मिल जाय तो फिर पूछना ही क्या? इसी . तरह एक तो पूर्वबद्ध वेद मोहनीय कर्म का तीव्र उदय हो और दसरी तरफ... वर्तमान में प्रबल उत्तेजक निमित्तों का योग मिले तो फिर पूछना ही क्या? कैसे टिक पाएंगे?
इस तरह आश्रव, बंध, और पूर्वकृत मोहनीय कर्म का उदय सब इकट्ठे होने पर कर्म बंध की ही प्रवृत्ति चलेगी और तीव्र भारी कर्मों का बंध होगा। इस तरह इसकी प्रवृत्ति वर्षों तक चलती ही रहती हैं। अरे ! वर्षों तक तो क्या जन्मों जनम तक चलती ही रहती है। कर्म का संसार है । अतः संसार भी अनादि-अनन्त नित्य शाश्वत है । तथा कर्मों को करनेवाला कर्तारूप जीव भी शाश्वत है । ऐसे संसार सदाकाल चलता ही रहेगा। - . १८ पापस्थानों में पाँचवा पापस्थान परिग्रह-संग्रह का है । संसारी जीव मोहवश जरूरियात से भी अनेकगुना ज्यादा अपनी इच्छाओं को संतोषने के लिए वस्तुओं का संग्रह हद से ज्यादा करता ही जाता है। उसके लिए कोई सीमा या किसी भी प्रकार का प्रतिबंध ही नहीं है। इसमें जड-भौतिक-पौद्गलिक वस्तुओं तथा नोकर-चाकरादि व्यक्तियों का भी संग्रह होता जाता है। क्या यह सब बिना राग के होना संभव है ? जी नहीं ! अरे ! तीव्र रागसे ही परिग्रह ज्यादा बढ़ता है। इसमें भी आश्रव के पाँचवे अवताश्रव तथा, अविरति बंध हेतु के भेदों का समावेश होता है । मोहनीय कर्म का तीव्र राग-मोह मिलकर जीव इस पाप को करता है और नए कर्म बांधता है ।
कषाय आश्रव और बंध हेतु-. .
१८ वे पाप में प्रथम ५ पाप तो द्रव्य पाप है। बाहरी पाप है । परन्तु उनके पीछे भाव पापं, आभ्यन्तर कक्षा के पापों में-६ से ११ तक स्थान हैं।६-क्रोध,७-मान, ८-माया, ९-लोभ, १०-राग, ११-द्वेष, ये ६ हैं। इनमें कषाय ही कषाय हैं । वैसे देखा जाय तो माया और लोभ राग के घर के हैं। तथा क्रोध और मान द्वेष के घर के हैं । ये मोहनीय कर्म के एक स्वतंत्र विभागरूप कषाय के स्वरूप में पड़े हैं। पूर्वजन्म में, या पूर्वकाल में
८१८
आध्यात्मिक विकास यात्रा