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________________ की मिलेगी ही नहीं। कम-ज्यादा मात्रा में सब में राग-द्वेष का अंश तो साथ में घुला हुआ ही मिलेगा । बस, निश्चित समझिए कि वह प्रवृत्ति मोहनीय कर्म की है । और कर्मबंध भी निश्चित ही होगा। दूसरा पापस्थान झूठ, तीसरा चोरी का पाप है। अच्छी तरह से देख लीजिए क्या इनमें राग-द्वेष की मात्रा का अंश है कि नहीं? अवश्य लगेगा। क्या बिना राग-द्वेष के आप झूठ बोल सकेंगे? बोला जा सकेगा? जी नहीं, कभी भी संभव ही नहीं है । राग-द्वेष की वृत्तियों के बिना कभी भी झूठ-चोरी संभव ही नहीं है। अब आश्रव के भेदों में अव्रताश्रव में तथा बंध हेतु में अविरति में इन झूठ-चोरी की प्रवृत्ति का पूरी तरह समावेश किया हुआ है। अतः झूठ-चोरी आदि पापों के सेवन से निश्चित रूप से कर्म का बंध होगा। और वह भी मोहनीय कर्म का बंध होगा तथा साथ में अन्य कर्मों का भी बंध होगा. ही। १८ पापों में चौथा पापस्थान मैथन सेवन का है। आश्रव में भी इन्द्रियाश्रव तथा अव्रताश्रव में इस पाप का स्थान पडा है । इन्द्रियाश्रव सहायक है । इसी तरह बंध हेतुओं में भी अविरति के भेदों तथा प्रमाद के भेदों में इसकी गणना स्पष्टरूप से की गई है। दूसरी तरफ मोहनीय कर्म की २८ प्रकृतियों में- वेदमोहनीय का स्वतंत्र विभाग है । इसमें तीन प्रकृतियाँ है । १) स्त्री वेद, २) पुरुष वेद और ३) नपुंसक वेद । ये प्रकृतियाँ विषय-वासना की काम क्रीडा करवाती है । विजातीय का विशेष आकर्षण खडा करके उसके साथ शरीर संबंध से सुख भोग भोगने की इच्छा प्रवृत्ति कराती है । इसमें रागभाव की बहुलता रहती है । इस वेद मोहनीय की तीव्रता और उदय की तीव्रता के कारण कई जीव अपनी वासना पर नियंत्रण नहीं कर पाते हैं और परिणाम स्वरूप बलात्कार, दुराचार, व्यभिचार आदि की प्रवृत्तियाँ कर लेते हैं। यदि मोहनीय कर्म के निवारण का कोई भी उपाय वह जानता होता, या उसके पास मोहनीय के सामने टिकने की कोई धर्म प्रवृत्ति, प्रबल ज्ञान-वैराग्य का साधन होता तो वह टिक पाता या बच पाता। परन्तु इनके न होने के कारण वह जीव कमजोर है । और ऊपर से चारों तरफ का वातावरण तथा टी.वी. आदि का उत्तेजक निमित्त काफी ज्यादा है। इन टी.वी, सिनेमा, नाटक आदि के प्रबल उत्तेजक–निमित्त आखिर कमजोर व्यक्ति के मन को खींच ही लेता है। साथ ही साथ जमानेवाद की फेशन की दुनिया, मनमोहक वेशभूषा, उद्भट वेषभूषा, आधुनिक जमाने की फेशनवादि युवतियों तथा स्त्रियों का अंगप्रदर्शन, उत्तेजक आकर्षण, फिल्मी गीतों की भरमार, उसमें भी अश्लीलता-बीभत्सतादि जो आज चरम कक्षा पर पहुँची है, इन सब कारणों से आज के युग को विज्ञान युग नहीं परन्तु वासनायुग कहने में आत्मशक्ति का प्रगटीकरण ८१७
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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