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________________ आश्रव और बंध हेतुओं में मोहनीय कर्म परपरिवाद CELL relan MAR ८१६ ०६. कपाय नाय! मिथ्यात्व वाद शल्य اعا यांग योग मि ㄓ प्राणातिपात • इन्द्रिय मत्वावरात प्रम मृषावाद अदत्तादान • अवत मैथून परिग्रह क्रोध मान सब प्रकारों को बहुत अच्छि तरह समझकर पहचान लीजिए। आपको स्पष्ट लगेगा कि ... ये सब एक मात्र मोहनीय कर्म की ही प्रवृत्ति है । इन सब प्रवृत्तियों में अन्य दूसरा कोई कर्म अभी बीच में आ भी नहीं रहा है । एक मात्र मोहनीय कर्म ने अपनी जाल बिछा रखी है । १८ पापस्थान की सब प्रकार की प्रवृत्तियाँ एकमात्र मोहनीय कर्म की ही है । इनमें अन्य कोई कर्म अभी बीच में ही नहीं आ रहा है। इन १८ प्रकार के हिंसा- झूठ - चोरी आदि के सभी प्रकार के पापों की प्रवृत्तियों में ४२ प्रकार के आश्रवों की प्रवृत्तियों का, तथा मिथ्यात्वादि बंध हेतुओं का सब का समावेश हो जाता है । सबकी प्रवृत्तियाँ साथ ही होती हैं। श्रव के इन्द्रियाश्रवादि मूल ५ प्रकार तथा अवान्तर ४२ प्रकार आपने देखें । तथा बंध हेतु के भी मिथ्यात्वादि मुख्य पाँचों प्रकार देखें । उनके भी अवान्तर भेद अनेक हैं । इन सबको आप अच्छि तरह देखिए... उदाहरणार्थ — पहला प्राणातिपात का पापस्थान है । जिसमें प्राणियों का वध - हिंसादि होती है । इसमें ४२ प्रकार के आश्रवों में से अवताश्रव और २५ प्रकार की क्रियाओं में से प्राणातिपातिकी - परितापनिकी आदि क्रियाओं की गणना साथ ही होगी । तथा बंध हेतु में जो अविरति नामक बंधहेतु है उसके प्रथम प्रकार के अविरति का हेतु इसी में समा जाएगा। इस प्रकार प्राणातिपातिकी क्रिया प्रवृत्ति से जिस प्रकार के कर्म का बंध होगा वह बड़ा भारी होगा। यह प्राणातिपातिकी क्रिया-प्रवृत्ति राग- - द्वेष - कषायादि पूर्वक होती है इसलिए मोहनीय कर्म के घर की प्रवृत्ति कहलाती है। याद रखिये, जिस जिस प्रकार की प्रवृत्तियों में जितने - जितने प्रमाण में जब जब राग-द्वेष की मात्रा जितने कम-ज्यादा मात्रा में रहेगी कषायादि भी जितनी मात्रा में होते रहेंगे निश्चित समझिए कि . वह प्रवृत्ति मोहनीय कर्म की ही है। और इस प्रकार की प्रवृत्ति से निश्चितरूप से कर्मों .. 1 का बंध होगा ही । और बिना राग-द्वेष की हमारी कौन सी प्रवृत्ति है ? पूरी २४ घण्टे की एक दिन की दिनचर्या की सभी प्रवृत्तियाँ देख लीजिए शायद एक भी प्रवृत्ति बिना राग-द्वेष आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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