________________
साथ कार्मण वर्गणा के पुद्गल परमाणुओं का संचय-संबंध होना । इसके बाद बंध के हेतु उन्हें घुल-मिलाकर एक रस बना देते हैं। बंध हेतु तत्त्वार्थकार ने ५ प्रकार के बताए हैं
"मिथ्यात्व-अविरति-प्रमाद-कषाय-योगा बन्धहेतवः ।" १) मिथ्यात्व, २) अविरति, ३) प्रमाद, ४) कषाय, और ५) योग ये पाँच बंध के हेतु हैं । यहाँ हेतु शब्द कारण अर्थ में है । आश्रव के आगमन द्वार के बाद जब कार्मण वर्गणा . के पुद्गल परमाणु आत्मप्रदेशों के साथ एक रस होते हैं, तब ये बंध हेतु.. उन्हें घोलकर एक रस करते हैं । तद्रूप बनाते हैं।
आश्रव और बंध हेतुओं के बीच समानता-विषमता कितनी है ? कितने प्रमाण में हैं? इसका स्पष्ट ख्याल दोनों के प्रकारों को देखने से स्पष्ट रूप से आ सकता है । आश्रव में भी कषाय,अव्रत, योग है और बंधहेतु में भी कषाय, योग और अव्रत के अर्थ में प्रमादादि ग्रहप किये हैं। अतः दोनों में तीन अंशों में समानता आती है। इससे यह स्पष्ट होता है कि..कषाय-योग-अव्रत (प्रमादादि) कर्म परमाणुओं काआश्रव भी करते हैं । आकर्षण करते हैं । खींचकर लाते हैं और ये ही बंध हेतु के रूप में पुनः उन्हें आत्मा के साथ बांधते भी हैं । ये कषायादि दोनों प्रक्रिया में कारणभूत बनने से कर्म के बंधादि की प्रक्रिया सदा काल चलती ही रहेगी।
यदि बचना हो और इन प्रक्रियाओं को रोकना हो तो निश्चित रूप से सर्व प्रथम-आश्रव की प्रक्रिया को रोकनी चाहिए। और बाद में बंध हेतु बंद करने चाहिए। आश्रव की प्रक्रिया को रोकने के लिए संवर का धर्म बताया है, और बंध के हेतुओं से बचने के लिए निर्जरा की प्रक्रिया बताई है। जिससे दोनों से बचा जा सकता है। कषाय-प्रमाद-योगादि जब दोनों में समान रूप से समाविष्ट हैं तब इनसे बचने पर आश्रव-और बंध दोनों से बचा जा सकता है । दोनों ही आत्मा के घातक शत्रु हैं । आत्म गुणों का घात-नाश करके भारी कर्म बंधाकर... आत्मा को संसार के ८४ के चक्र में घुमाने भटकानेवाले हैं । अतः इन्हें अच्छि तरह पहचानकर यथाशीघ्र बडी सावधानी पूर्वक बताए हुए संवर और निर्जरा की धर्मसाधना से आश्रव और बंध को रोकना चाहिए । इनसे बचना ही चाहिए। तो ही आत्मा का विकास होना संभव है। .
आत्मशक्ति का प्रगटीकरण