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________________ स्पष्ट होता है कि ... जो जो जीव इस सिद्धाचल - सिद्धक्षेत्र के दर्शनार्थ आते हैं वे भवि जीव कहलाते हैं । भव्यत्व की छाप प्राप्त करते हैं । I शायद आप सोचेंगे कि क्यों इस सिद्धक्षेत्र के लिए ही ऐसा कहा गया है ? क्यों अन्य तीर्थों के लिए ऐसा नहीं कहा गया ? इसका सबसे सीधा उत्तर यह है कि यह सिद्धाचल अनन्त सिद्धों का धाम है । अनन्त आत्माएं यहाँ से सिद्ध हुई हैं। अतः तीर्थक्षेत्र सिद्धक्षेत्र के बहाने सिद्धात्माओं के सिद्ध बनने की प्रक्रिया को मानने के साथ भव्यपने का सीधा संबंध है। सिद्धक्षेत्र सिद्धशिला सिद्धत्व की प्राप्ति की प्रक्रिया - मोक्ष को मानने के साथ भव्यत्व का सीधा संबंध है । ठीक इसके विपरीत मोक्ष को न मानने के साथ अभव्यात्मा का संबंध है । सिद्धक्षेत्र मोक्ष के विषय को लेकर, अनन्तात्माओं की मुक्ती को लेकर महान है । अतः सिद्धाचलादि सिद्धक्षेत्र को मानने के बहाने मोक्ष को मानना, श्रद्धा रखना आदि के कारण भव्यत्व की छाप का आधार है । अतः सिद्धाचल अर्थात् मात्र तीर्थभूमि के व्यवहारिक बाह्य संबंध मात्र से ही मतलब नहीं है अपितु मुख्य रूप से ... सिद्धों को मोक्ष को मानने की प्रक्रिया के साथ भव्यपने का सीधा आधारभूत संबंध है । शायद आप कहेंगे कि सम्मेतशिखरजी को ऐसा स्वरूप क्यों नहीं दिया ? इसका सीधा उत्तर है सिद्धों की संख्या का । सिद्धाचल पर अनन्त की संख्या में सिद्ध हुए हैं। भले ही तीर्थंकरों का सिद्ध होना सिद्धाचल पर नहीं है। फिर भी तीर्थंकर सिवाय के अन्य अनन्त की संख्या में हैं। तीर्थंकरों का तो वैसे भी सिद्ध होना अनिवार्य ही होता है । परन्तु तीर्थंकरेतर अन्य किसी का भी मोक्ष में जाना अनिवार्य नहीं होता है। ऐसे आचार्य - उपाध्याय - साधु एवं साध्वीजी सब का मोक्षगमन तो अनिवार्य रूप से निश्चित नहीं होता है । अतः ऐसे सिद्ध होनेवाले और सिद्ध हुए सिद्धात्मा को मानने के आधार पर सम्यक्त्व का आधार है । तथा इनमें सिद्ध होनेवालों में भी पुरुष साधुओं की अपेक्षा स्त्री साध्वियों की संख्या कांफी ज्यादा है। आपको आश्चर्य तो यह जानकर होगा कि .... चौबीस ही तीर्थंकर भगवन्तों के साधु जितने मोक्ष में गए हैं उनमें साध्वियाँ जो मोक्ष में गई हैं उनकी संख्या दुगुनी है। आज भी जैनों में जो एक सम्प्रदाय दिगम्बर मत का है वह तो स्त्रीमुक्ती मानने के लिए तैयार ही नहीं है। यदि न मानें तो तीर्थंकर परमात्मा के धर्मसंघ में साध्वियाँ थी, उन्होंने सारी साधना की, चारित्र पालकर निर्जरा कर कर्मक्षय करके मोक्ष इसमें क्या आपत्ति है ? लेकिन अपने मत के कदाग्रह के कारण ही मात्र ऐसी दुर्मती बना ली है। और कोई शास्त्रीय - सैद्धान्तिक कारण लगता ही नहीं है । सम्यक्त्वगुणस्थान पर आरोहण ४४९
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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