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________________ के साथ एक रसी भाव हो जाते हैं तो आत्मा के मूलभूत ज्ञानादि गुणों का आस्वाद कितने प्रमाण में बचेगा? क्या अंशमात्र भी आत्मगुणों का स्वाद-प्रकाश बाहर आएगा? क्या संभव भी है? ये जितने अनन्तानन्त कार्मण परमाणु है इन्होंने जितना ज्यादा बडा आवरण बना दिया है आत्मा पर स्तर (Cotting) बना दिया है । जैसे दिवाल पर रंग का स्तर १, २, ४, ६, आदि लगाया जाता है। ठीक उसी तरह आत्मप्रदेशों पर... कार्मण परमाणुओं का स्तर (Cotting) बनता है । वही आवरण (परदे) की तरह रहता है । न मालूम कितनी संख्या में स्तरों के आवरण रूप परदे होंगे? इनसे आत्मा के गुण ज्ञानादि कितने ज्यादा दब चुके होंगे? और आत्मा पर ऐसे कर्म के अनन्तगुने अनन्तानन्त स्तर (थर) बन चुके हों। उनमें से अब आत्मा के ज्ञानादि गुणों का प्रकाश बाहर आता होगा? इसके उत्तर में भ. महावीर फरमाते हैं कि अनन्त कर्म के आवरण के नीचे से आत्मा का जितना अनन्त ज्ञान है उसका मात्र अनन्तवे भाग का ही ज्ञान प्रकाश बाहर आता है । जितने जितने कर्मावरण के आवरण स्तर कम होते, क्षय होते जाएंगे उतना-उतना प्रकाश का प्रमाण बढ़ता ही जाएगा। यदि कर्मों के स्तर का अंशमात्र भी क्षय नहीं होता है और अनन्तगुना आवरण कर्म का ऐसे ही पडा हो तो निश्चित समझिये की अनन्तवें भाग का ही ज्ञानादि गुणों का प्रकाश बाहर आएगा। - अनन्तज्ञानी उनको ही कहते हैं जिनके अनन्तानन्त सभी कर्मावरणों के स्तरों का सर्वथा आत्यन्तिक क्षय-नाश हो चुका हो और फलस्वरूप अनन्तगुना ज्ञान प्रगट हो जाता है। बस, वे ही अरिहंत-सिद्ध भगवान कहलाते हैं । और शेष हमारे जैसे जीव अनन्तज्ञानी नहीं परन्तु अनन्त कर्मी कहलाते हैं । यह तो आत्मा ही अपने मूलभूत स्वभाव में ऐसा द्रव्य था कि अनन्तानन्त कार्मण परमाणुओं के स्तरों के होने के बावजूद भी अपना मूलस्वरूप अस्तित्व टिकाकर रख सका । अन्यथा संभव ही नहीं था। यही आत्मा का पारिणामिक भाव है । और द्रव्य स्वरूप की ध्रुवता-नित्यता का आधार है । यदि चेतनात्मा अपने मूल स्वरूप में ध्रुव नित्यरूप में शाश्वत नहीं होती और मात्र पर्याय रूप ही होती और उसमें उत्पाद-व्ययादि ही होते रहते तो... अनन्त ज्ञानादि कहाँ टिकते? किसके आधार पर टिकते? और कार्मण वर्गणा का अनन्त परमाणुओं का स्तर भी कहाँ टिकता? इसलिए चेतन आत्मा को मानना अनिवार्य है और उससे भी ज्यादा अनेक गुना उसको जैसी है वैसी शुद्ध स्वरूप में मानने की आवश्यकता है। अतः आत्मा को ध्रुव-शाश्वत-नित्य स्वरूप में मानना अनेक गुना ज्यादा जरूरी है। आत्मशक्ति का प्रगटीकरण ८१३
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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