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________________ अपना स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं रहता है आत्मा के प्रदेशों के साथ घुल-मिलकर ऐसे एक रस हो जाते हैं कि आत्मा के असंख्य प्रदेशों को आवृत्त कर लेते हैं । जैसे एक लिटर दूध को एक चम्मच शक्कर मीठा बना देती है। पूरा दूध ऊपर से नीचे तक का सारा... मीठा ही मीठा लगता है । अब मीठापन पूरे दूध पर चारों तरफ से छा गया है । दूध के मूलभूत स्वाद को शक्कर ने सर्वथा समाप्त ही कर दिया और अपना मीठापन-अपना शक्कर का स्वाद दूध पर जमा दिया है। . ठीक इसी तरह आत्मा और कर्म के बंध की बात है । दूध और शक्कर के दृष्टान्त से सरलता से समझा जा सकता है । दूध की जगह पर आत्मा तथा कर्म की जगह पर.. . शक्कर । इस तरह दोनों के मिश्रण-संमिश्रण की प्रक्रिया को आश्रव बंध के साथ मिलाकर देखना है । उपमा उपमेय की सादृश्यता से वस्तु स्वरूप का ख्याल आ सकता है । दूध में शक्कर के कण घूलकर एक रस बनते हैं जबकि आत्मप्रदेशों मे कार्मण वर्गणा के परमाणु घुल-मिलकर एक रस बनते हैं। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा... कि आत्मा के प्रदेश तो है मात्र असंख्य और कार्मण वर्गणा के परमाणु उसमें आकर घुल-मिलकर एक रस बनते हैं-अनन्तानन्त । जैसे एक लिटर दूध में १ चम्मच, १० चम्मच, १०० चम्मच शक्कर भी मिल सकती है । सोचिए १ चम्मच में शक्कर के कण कितने होंगे? अंदाजन ५०० कण भी गिनें तो १०० चम्मच में कुल मिलाकर १००x ५०० = ५०००० कण अंदाजन हो सकते हैं । वे सब पिघलकर-घुल-मिलकर दूध में मिल गए। अब ढूंढने भी जाएं तो एक का भी स्वतंत्र कण के रूप में अस्तित्व बचा नहीं है । सब पिघल गए हैं । अब सोचिए, दूध में मिठास कितनी बढी? क्या अब दूध के मूलभूत स्वाद का अंशमात्र भी पता लगना संभव है ? जी नहीं।... ठीक इसी तरह आत्मा के असंख्य प्रदेशों में कार्मण वर्गणा के पुद्गल परमाणुओं का मिलना है । शक्कर के कण तो काफी बडे स्थूल थे। लेकिन कार्मण वर्गणा के परमाणु तो कण रूप स्थूल नहीं परन्तु संसार में सब प्रकार के परमाणुओं में सूक्ष्मातिसूक्ष्म परमाणु कार्मण वर्गणा के ही हैं । बस, सूक्ष्मातिसूक्ष्मता की अन्तिम कक्षा आ गई । इससे ज्यादा सूक्ष्म संसार में अब कोई परमाणु, या किसी भी प्रकार का परमाणु है ही नहीं । ऐसे इस प्रकार के सूक्ष्मातिसूक्ष्म कार्मण वर्गणा के अनन्तानन्त परमाणु शक्कर की तरह घुल-मिलकर आत्म प्रदेशों के साथ एक रस बन चुके हैं। अब आप ही सोचिए..आत्मा के प्रदेश तो हैं सिर्फ असंख्य ही, और कार्मण वर्गणा के परमाणु आत्मा पर है अनन्तानन्त । ऐसी स्थिती में ये अनन्तानन्त कार्मण वर्गणा के परमाणु घुल-मिलकर जब आत्म प्रदेशों ८१२ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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