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________________ ८ कर्मों में घाति–तथा अघाती के जो दो विभाजन किये हैं उससे भी स्पष्ट ख्याल आ जाता है। ४ घाती कर्मों में ज्ञाना. दर्श. मो. और अंतराय ये चारों कर्म आत्मा के मूल गुणों का घात करके कर्मबंध भी बहुत भारी कराते हैं। . बंध हेतु तथा आश्रव की दृष्टि से देखने पर भी- एक मात्र मोहनीय कर्म की अनेक विध प्रवृत्तियों के आधार पर शेष सातों कर्म का बंध होता है । उदाहरण के लिए देखिए ... मोहनीय कर्म की मुख्य प्रवृत्ति मिथ्यात्व, कषाय और विषय इनके आधार पर इनकि जो भी कोई प्रवृत्ति की जाय... उनसे ज्ञाना. दर्शना. दोनों का बंध होता है । मोहनीय के ही आश्रव और बंध हेतु है इसलिए पुनः मोहनीय कर्म का बंध तो होगा ही। अन्तराय कर्म का बंध भी कषायों आदि के आधार पर होता ही है । इसी तरह नाम कर्म का बंध भी मोहनीय की प्रवृत्तियों के आधार पर होता है । और गोत्र कर्म उच्च-नीच गोत्र का बंध भी कषायों के बंध हेतु और आश्रव पर आधारित है । वेदनीय कर्म में शाता-अशाता का बंध भी कषायों पर आश्रित है। और अन्त में आयुष्य की चारों प्रकृतियों का आधार.. भी कषायों पर ही है । स्पष्ट कहा है कि क्रोध प्रायः नरक गति का आयुष्य बंधाता है। माया कपट प्रायः तिर्यंच गति का आयुष्य बंधाता है । लोभ प्रायः देव गति का आयुष्य बंधाता है। और मान मनुष्य गति में कारण बनता है। इस तरह आठों कर्मों का बंध मोहनीय कर्म की प्रवृत्तिरूप आश्रव तथा बंधहेतु से होता है। आश्रव और बंध हेतु . कर्मों के उदय में तथाप्रकार की जो जो प्रवृत्तियाँ की जाती है । वे प्रवृत्तियाँ पुनः उस कर्म तथा सभी कर्मों के लिए आश्रवभूत कारण बन जाती है । आश्रव और बंध हेतु दोनों अलग-अलग तत्त्व हैं। नौं तत्त्वों में आश्रव और बन्ध दोनों की स्वतंत्र गणना अलग-अलग की है। दोनों के कार्य क्षेत्र भी अलग-अलग हैं । आश्रव का कार्य पहले है। बाद में बंध। आश्रव में प्रवृत्ति द्वारा कार्मण वर्गणा के पुद्गल परमाणुओं का आगमन होता है। और बंध में घुल-मिलकर आत्म प्रदेशों के साथ उन कार्मण परमाणुओं का बंध होता है । एकरसी भाव होता है । जैसे उदाहरण के लिए दूधभरे एक ग्लास में शक्कर डालना यह आश्रव है । और फिर चम्मच से मिलाकर घोल-घोल कर शक्कर के कण-कण को पिघलाकर पूरे दूध को..और शक्कर को एक रस बना देना-यह बंध है । बंध में शक्कर के कणों का स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं रहता है । वैसे ही कार्मण वर्गणा के परमाणुओं का भी आत्मशक्ति का प्रगटीकरण ८११
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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