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वाणी भाषा के माध्यम से बाहर निकलते हैं। भाषा दूसरों तक जाती है । दूसरे भी उस भाषा को ग्रहण करके वैसे विचारवाले बनते हैं। परिणामस्वरूप.. मिथ्यात्व का चेप लगता है। फैलावा बढ़ता है। अतः सच्चे सम्यग दृष्टि साधक को ऐसे मिथ्यात्वियों की संगत-मित्रता से पहले बचना चाहिए। उनके विचारों को ग्रहण ही नहीं करने चाहिए। क्योंकि मिथ्यात्व बढेगा.. तो उसके आधार पर श्रद्धा समाप्त हो जाएगी। अध्यवसाय भाव-सब टूट जाएंगे। बड़ी मुश्किल से जिस असंभव को संभव किया वह सम्यक्त्व नष्ट हो जाय, चला जाय तो मोक्ष के सोपानों से वापिस उतरकर..जीव संसार के प्रति गाढ आसक्ति पैदा कर देगा। फिर कषायों का आश्रय लेकर ही जीएगा। और कषायों का रस बढने पर कर्मबंध पुनः उत्कृष्ट स्थितियों का बंधने लग जाय तो संसार-भव परंपरा फिर बहुत लम्बा-चौडा बढ जाएगा। गेंहू का आटा लेकर उसमें पानी–घी-तेलादि डालकर पिण्ड बनाकर जैसे रोटी बनाई जाती है । ठीक उसी तरह कार्मण वर्गणा के पुद्गल परमाणुओं को ग्रहण कर जीव उन. में कषायों का रस डलता है। साथ ही आर्त-रौद्रादि ध्यान की परिणति का रस (पानी) लेश्याओं की तरतमता का रसादि उसमें मिलाकर जीव अपने आत्मप्रदेशों के साथ एकरस कर बांधता है तब कर्म का बंध होता है । अतः सर्वथा कषायों से बचनेवाला जीव अपना भवसंसार ज्यादा नहीं बढाता है क्योंकि भारी कर्मों को वह नहीं बांधता है।
सभी कर्मों का कारणभूत कर्म___आप अच्छी तरह जानते ही हैं कि कर्म ८ हैं । इन आठ कर्मों में राजा मोहनीय कर्म है । यही सबसे ज्यादा खतरनाक है । अवान्तर प्रकृतियों की संख्या की दृष्टि से.. भले ही नामकर्म की प्रकृतियाँ १०३ की संख्या में ज्यादा हो । परन्तु नाम कर्म का मुख्य कार्य जीव को गति–जाति शरीरादि देने का है। इसलिए यह बेचारा भवभ्रमण संसार बढानेवाला कर्म नहीं है । शेष सभी कर्मों की प्रकृतियाँ कम संख्या में छोटी-छोटी है। नामकर्म के बाद संख्या में दूसरा नंबर मोहनीय कर्म का आता है। इसकी अपनी २८ अवान्तर प्रकृतियाँ हैं । संख्या की दृष्टि से ये भले ही नामकर्म की तुलना में कम हो परन्तु एक-एक प्रकृति इतनी ज्यादा खतरनाक है कि वे अनेकगुना-असंख्य वर्षों का भव संसार बढा दे । उनमें भी विशेषकर मिथ्यात्व और कषाय की प्रकृतियाँ तो सबसे ज्यादा खतरनाक है । नोकषाय की कुछ कम और वेद मोहनीय की भी इतनी भयंकर है कि पूरी जिन्दगी भर सताती रहती है।
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आध्यात्मिक विकास यात्रा