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________________ और धर्म तथा तत्त्वों के प्रति अंश मात्र भी श्रद्धा ही नहीं है । वह मानने के लिए ही तैयार नहीं है । जानने के लिए या उन्हें पहचानने के लिए ही तैयार नहीं है । फिर सवाल ही कहाँ खडा होता है ? मिथ्यात्वी को एक मात्र अपने संसार के सुखों से मतलब है । अतः वह सुखस्वार्थी कहलाता है । जिसमें उसे सुख मिलता हो, दुःखों की निवृत्ति होती हो । अरे ! वह चाहे धर्म के नाम से या धर्म के रास्ते से भी होती हो तो वह करने के लिए तैयार है। कर भी लेगा। परन्तु मानने की, श्रद्धा की कोई भावना नहीं है। कोई बात ही नहीं है। मिथ्यात्वी को श्रद्धा-मानने और जानने आदि किसी बात से कोई मतबल ही नहीं है। ऐसा मिथ्यात्वग्रस्त विपरीत मतिवाला जीव क्या करेगा? हाँ, सम्यग् दृष्टि जीव जिसने श्रद्धा धारण की है । मिथ्यात्व सर्वथा छोड दिया है। अतः मिथ्यात्व की विपरीत मति उल्टी बुद्धि अब नहीं है। अतः मिथ्यात्वी जो देव-गुरु-धर्म से विमुख–विपरीत था, वह अब सम्यक्त्वी बनकर देव-गुरु-धर्म के सन्मुख बन गया है। ज्ञान भी सही सम्यग् बना, मानने की श्रद्धा भी सही सच्ची बनी, और आचरण भी सुधरने लगा। आचरण में से पाप का प्रमाण घटने लगता है। इस तरह विकासयात्रा के श्रीगणेश होते जाते हैं। मिथ्यात्व और कषाय का संबंध मिथ्यात्व और कषाय का गाढ संबंध है । विशेष कर अनन्तानुबंधी कषाय के साथ गाढ संबंध मिथ्यात्व का है। दोनों ही एक दूसरे के लिए हैं। मिथ्यात्वी अनन्तानुबंधी कषाय करता है। और अनन्तानुबंधी कषाय करनेवाला मिथ्यात्वी बनता है । इस तरह कषाय से मिथ्यात्व की वृद्धि, और मिथ्यात्व से कषाय की वृद्धि होती ही रहती है । इस तरह दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। इन दोनों की मित्रता बडी भारी है। मिथ्यात्व अनन्तानुबंधी कषाय के बिना जी ही नहीं सकता है। इसीलिए यदि अनन्तानुबंधी कषाय की चारों कर्म प्रकृतियों का क्षय हो जाय तो मिथ्यात्व टिक ही नहीं सकता है । 'क्षय हो जाता है । इसलिए खास करके साधक को जो आत्मजागृति के विषय में ज्यादा सावधान है उसे सबसे ज्यादा कषायों से सावधान रहना ही चाहिए । जो तीव्र कषायों से बचता है वही मिथ्यात्व से काफी अच्छे प्रमाण में बच सकता है। इसी तरह कषाय से बचकर मिथ्यात्व के निमित्तों से भी बचना ही चाहिए। मिथ्यात्व का चेप मिथ्यात्वियों की संगत से लगता है। अतः उनकी संगत से संबंध से पहले बचना चाहिए। मिथ्यात्वी जीवों के विचार विपरीत प्रकार के होते हैं । सचमुच मिथ्यात्व की निपज विचारों में होती है । और आत्मशक्ति का प्रगटीकरण
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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