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________________ भव - परिभ्रमण बढाता है। एक एक गुणस्थान नीचे उतरते उतरते पहले मिथ्यात्व के गुणस्थान पर भी जाकर गिरता है। वहीं काफी काल बिता देता है। संसार बढानेवाले कषाय कषायों को मुख्य कार्य है संसार बढाना, भव - परिभ्रमण बढाते जाना । जब जब जीव क्रोध - मान-माया - लोभ-राग-द्वेषादि करता जाता है, बढाता ही जाता है तब तब निश्चितरूप से संसार बढाता ही जाता है। मोहनीय कर्म में मुख्य राजा कषाय ही है । मोहनीय कर्म की २८ प्रकृतियों में १६ प्रकृतियाँ कषाय की हैं । यद्यपि हम मिथ्यात्व को भी मुख्य राजा कह सकते हैं, मिथ्यात्व होने पर कषाय, और मिथ्यात्व के न होने पर कषाय, इस तरह दो विभाग करने से काफी अच्छि तरह ख्याल आ सकता है । कषाय १) मिथ्यात्व होने पर अनन्तानुबंधी ४ कषाय इस तरहे दो विभागों में तुलना करने पर मिथ्यात्व के होने पर मात्र ४ ही कषाय हैं । यहाँ संख्या जरूर छोटी लगती है । परन्तु अनन्तानुबंधी की कक्षा - मात्रा होने पर, ये अनन्तानुबंधी कषाय भवोभव - जन्मोजनम का संसार बढानेवाले हैं। दूसरी तरफ मिथ्यात्व के अभाव में अर्थात् सम्यक्त्व की उपस्थिति में १२ कषाय हैं । ४ अप्रत्याख्यानीय के, + ४ प्रत्याख्यानीय के + ४ संज्वलन के, इन १२ कषायों में काल मर्यादा काफी कम है। ज्यादा से ज्यादा १ वर्ष की ही अवधि के हैं । अप्रत्याख्यानीय चारों कषायों की कालअवधि— १ वर्ष की, प्रत्याख्यानीय चारों की कालअवधि ४ मास की, और संज्वलन के चारों कषायों की कालअवधि मात्र १५ दिन की है। इसलिए अप्र. प्र. और सं. तीनों प्रकार के कषाय भले ही मिलकर संख्या में १२ जरूर होते हैं, परन्तु ज्यादा I . ज्यादा १ वर्ष तक की काल अवधि है। इसीलिए जैन शासन में संवत्सरी प्रतिक्रमण एक वर्ष के अन्त में रखा है। संवत्सरी का अर्थ है संवत्, - वर्ष । इसलिए इसे वार्षिक प्रतिक्रमण कहा है। संवत्सरी प्रतिक्रमण करने से ... क्षमायाचना पूर्वक मिच्छामिदुक्कडं देने से इन अनन्तानुबंधी ४ प्रकार के कषायों से बच सकते हैं । छूट सकते हैं । अन्य १२ कषायों की क्षमायाचना होती है । आखिर धर्म की शुरुआत ही चौथे सम्यक्त्व के गुणस्थान से होती है । इसके पहले तो जीव मिथ्यात्वी ही है। क्योंकि श्रद्धा ही सम्यक्त्व से जगती है । प्राप्त होती है। बिना श्रद्धा के शुरुआत ही नहीं होती है। मिथ्यात्वी जीव में देव, गुरु २) मिथ्यात्व न होनेपर अप्र.प्र. सं. के १२ कषाय ८०८ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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