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बडा होकर अपने आश्रित और आधीन पर क्रोधादि कोई भी कषाय करना आसान समझता है। करता भी है। बाप बेटे पर, माँ बेटी पर, पति पत्नी पर, सास बहु पर, शेठ नोकर पर, राजा मंत्री पर.. इत्यादि.. इस तरह बडा छोटे पर क्रोध मानादि कषाय करना. बहुत ही आसान समझता है । इतना ही नहीं, कषाय करने का अपना अधिकार समझता है। बस, क्रोधादि किया और अपना काम करवा लिया। अपनी इच्छा पूरी की। धारणानुसार काम हो जाने पर उसमें अपनी विजय पाने में वह जीव निरर्थक राजी होता है। पिंजरे में सिंह बैठ ही रहा था, बैठने जा रहा था कि बाहर से बच्चे ने चिल्लाया... ऐ ! बैठ जा.. और सिंह बैठ गया। (वह तो पहले ही अपने आप बैठ ही रहा था) बस, इतने में बच्चा सबको कहता है... देखा ! मेरा कौन नहीं मानता है.. सब मानते हैं अरे देखो यह जंगल का राजा सिंह भी मानता है । मैं कहुँ तो बैठ जाता है । वाह.. क्या बात है ! क्या कमाल है ! बस, निरर्थक अपने अहंकार को बढाता है। अंभिमान को पोषता
.. अहंभाव की पुष्टि में, क्रोधादि की पुष्टि में, माया-लोभ से कार्य सिद्धि में जीव आनन्द मानता है । सुख मानता है। अपने मान को बढाता है । बस, इसीमें कार्य सिद्धि
और इसीमें सातवे स्वर्ग का राज्य-सुख प्राप्त हो गया ऐसा निरर्थक मानकर फूला नहीं समाता है । उसे यह नहीं मालूम है कि कार्य तो क्षणिक है, परन्तु मुझे जो भारी व चिकने कर्मों का बंध होगा वह कितने वर्षों का होगा? कितने जन्मों-वर्षों तक उस कर्म का फल भुगतना पडेगा? किस तरह भुगतना पडेगा? भुगतते समय मेरी क्या हालत होगी? बस, कुछ भी विचार न करना कषाय में अंधा बना हुआ क्रोधान्ध, मोहान्ध बना हुआ जीव क्षणिक सुख सन्तुष्टि के लिए सब कुछ कर देता है।
१) स्वभाव में रमणता करनेवाला साधक जीव। २) विभाव में भ्रमणता करनेवाला विराधक जीव। ३) स्वभाव में सर्वथा न रहनेवाला विराधक जीव ।
४) विभाव में सर्वथा न रहनेवाला साधक जीव। . इस तरह संसार में सब प्रकार के जीव हैं । जिसकी जैसी वृत्ति-प्रवृत्ति वैसी कक्षा का वह कहलाता है। इस स्वभाव-विभाव के कारण कोई साधक और कोई विराधक कहलाता है। साधक संसार को पार कर मुक्ति की तरफ प्रयाण करता है। एक एक : गुणस्थान आगे बढ़ता है । तथा विराधक मुक्ति से उतना ही दूर जाता है । अपना संसार
आत्मशक्ति का प्रगटीकरण
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