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"महाजनो येन गतः स पन्थाः" महापुरुष जिस पन्थ पर चले हैं, जिस पन्थ-मार्ग पर आगे बढे हैं, विकास साधा है वही पन्थ हमारा भी होना चाहिए। उसी मार्ग पर चलेंगे तो ही उनके जैसे महान बन सकेंगे। महावीर के बताए हुए मार्ग पर चलेंगे तो ही महावीर बन सकेंगे, और किसी गलत पुरुष के मार्ग पर चलेंगे तो वैसा बनने की संभावना पूरी रहती है । अतः हमेशा ऊँचा आदर्श ही दृष्टि समक्ष रखना चाहिए। स्वभाव घातक मोहनीय कर्म
आत्मा का मूलभूत स्वभाव-उसके गुणों पर आधारित है । गुणों का ही बना हुआ स्वभाव होना चाहिए। क्षमा, समता, नम्रता, सस्जता, संतोष, दया-करुणा आदि आत्मा के जो गुण है उनका ही व्यवहार में आचरण–पालन करने से स्वभाव बनता है । जैसे पानी अपने मूल स्वभाव में निर्मल स्वच्छ, पवित्र, शीतल स्वभाववाला, गुणवाला है । ठीक आत्मा भी वैसी ही है । परन्तु जैसे निमक-शक्कर या कीचडादि मिलने से पानी खारा, मीठा, मैला, मलीन बनता है वैसे ही चेतनात्मा मोहनीय कर्म के कारण रागी-द्वेषी-क्रोधी-मानी-मायावी विकारी आदि बनती है।
. स्व = आत्मा, भाव = उसके गुण । अपनी ही आत्मा के आत्मिक गुणों की मस्ति में रहना यही आत्मा का स्वभाव है। आत्मा का मूलभूत स्वभाव क्रोधी-मानी-मायावी-लोभीआदि नहीं है । यह तो विभाव है । स्वभाव नहीं इसे विभाव कहना चाहिए। जैसे दूध का अपना मूलभूत स्वभाव और दूध में नींबू का रस मिलने के पश्चात का स्वभाव दोनों एक ही है ? जी नहीं । दूध अमृत जैसा है । परन्तु नींबू के रस से फट जाने के बाद वह कैसा विकृत हो जाता है ? ठीक इसी तरह चेतनात्मा अपने मूलभूत स्वभाव से क्षमा-समतादि स्वभाववाली है। परन्तु उपार्जित मोहनीय कर्म के उदय के कारण आत्मा विकृतिवाली बन जाती है। अतः इस विकृति का सूचक “वि" अक्षर (उपसर्ग) भाव शब्द के साथ जोडकर- या लगाकर विभाव' शब्द बनता है। विभाव अर्थात् विकृत भाव । क्रोधादि की विकृतिवाला जीव । इसी दृष्टि से क्रोधादि को स्वभाव नकहकर विभाव ही कहना चाहिए । यही सही भाषा है । लेकिन लोक व्यवहार में प्रचलित शब्द स्वभाव का प्रसिद्ध हो गया है । बस, स्वभाव शब्द से ही क्रोधादि की विवक्षा करके व्यवहार किया जा रहा है संसार में । लेकिन वास्तविकता यह है कि क्षमा-समतादि आत्मा का स्वभाव है और क्रोधादि विभाव है। क्रोधादि कषाय मोहनीय कर्यजन्य है। ऐसा मोहनीय कर्म आत्मा के मूलभूत क्षमादि के स्वभाव का घात करता है । अतः घातक है।
आत्मशक्ति का प्रगटीकरण
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