SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 398
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उस समय पर्याय बदलती है। और आत्मा कषायी, अभिमानी, घमण्डी, मायावी, कपटी, लोभी आदि विभिन्न पर्यायवाली बनती है। ये गुण की बदलती हुई पर्यायें हैं। देह की पर्याय नामकर्मानुसार प्राप्त होती है। आत्मा की देहाकार स्थिति पर्याय नाम कर्म करता है। गुणात्मक परिवर्तन होने के पश्चात् दोषयुक्त पर्याय का रूपान्तर मोहनीय कर्म करता T iN I I अतः मोहनीय कर्म आत्म गुणों का घातक - नाशक है । लेकिन एक बात जरूर ध्यान में रखिए कि ... आत्मा के गुणों का सर्वथा समूल - जडमूल से नाश - घात कभी हो ही नहीं सकता है । संभव ही नहीं है । 'न भूतो न भविष्यति' जैसी बात है । फिर भी मोहनीय कर्म की प्रकृतियाँ आत्मा के गुणों का आच्छादन करती है । दबा देती है । ढक देती है | आवृत्त कर देती है । बिपरीत स्वरूप में लाकर रख देती है । परिणाम स्वरूप आत्मा गुणवान के बदले दोषयुक्त बन जाती है । क्षमाशील के बदले क्रोधी, नम्र - विनयी के बदले मानी - अभिमानी, ऋजु - सरल के बदले मायावी - कपटी, तथा निर्लोभ संतुष्ट के बदले लोभी, आसक्त बन जाती है। वीतरागी के बदले रागी - द्वेषी बन जाती है । समस्त जीवों पर प्रेम के बदले वैर-वैमनस्य - द्वेष दुश्मनी रखती है। जीवों पर करुणा - दया रखने के बदले दुर्भाव दुष्टवृत्ति रखती है। दूसरों के गुणों को देखने गुणग्राही, गुणप्रेमी, गुणानुरागी बनने के बदले दोषदर्शी, दोषग्राही, दोषप्रेमी बन जाता है जीव । माध्यस्थभाव के बदले द्वेष-दुर्भाव जगता है । गंभीरता आदि गुणों के बदले हास्यादि का छिछलापन स्वभाव में आता है । निर्विकारी भाव के बदले जीव भोगी - भोगासक्त, भोग भोगनेवाला Sasa बन जाता है । निर्भयी - अभयदाता बनने के बदले भयग्रस्त - डरपोक बन जाता है । इस तरह मोहनीय कर्म चेतनात्मा की हालत खराब कर देता है। गुणों का घात - नाश करके दोषों का आरोपण कर देता है। दोषात्मक स्वरूप तो संसार के मोहग्रस्त सभी जीव इसके प्रत्यक्ष दृष्टान्त स्वरूप हैं। लेकिन दोषरहित, सर्वथा मोहनीय कर्म रहित आत्मा का, सब गुणों की परिपूर्णता का शुद्ध स्वरूप देखना हो तो एक मात्र वीतरागी पूर्णात्मा में ही देखने मिल सकता है । देख सकते हैं । इसीलिए वे संसार से अलग - विलक्षण कक्षा के महापुरुष हैं । उनका ही परमात्मा - भगवान के रूप में आलंबन लेकर आगे बढना चाहिए । तभी वैसी कक्षा आत्मा को प्राप्त हो सकती है। अन्यथा नहीं । रागी -द्वेषी को भगवान - परमात्मा के रूप में स्वीकारने से हमारे सामने आदर्श - और आलंबन वैसे राग- द्वेष के ही बनेंगे । परिणाम स्वरूप हमारे में भी राग-द्वेष ही आएँगे । राग- - द्वेष की ही वृद्धि होगी । फायदा नहीं होगा। आगे विकास नहीं होगा। उल्टा विनाश होगा । I ८०४ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy