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सूक्ष्मातिसूक्ष्म स्वरूप में जीव रहा...फिर भी वहाँ वह अपना अस्तित्व टिकाकर रहा। सोचिए.. अनादि अनन्त काल जीवी, अनुत्पन्न अविनाशी इस शाश्वत आत्मा ने अपना द्रव्यरूप अस्तित्व सदा टिकाकर रखा, बनाकर रखा। सर्वथा अस्तित्व का लोप कभी भी होने नहीं दिया। ऐसी आत्मा का नाश-विनाश या सत्यानाश कभी भी हो ही नहीं सकता है तो फिर सवाल ही कहाँ रहा?
हाँ, ठीक है, द्रव्य का अस्तित्व से नाश तो किसी भी हालत में, किसी भी स्थिती में, किसी भी तरीके या कारण से हो ही नहीं सकता है । सत्तारूप अस्तित्व का अभाव होना कभी भी संभव ही नहीं है । ऐसा है आत्मा का द्रव्य स्वरूप, जो ध्रुव-नित्य-त्रैकालिक शाश्वत स्वरूप। आखिर आत्मा द्रव्य रूप से अछेद्य-अभेद्य-अदाह्य अकाट्य-अविभाज्य-अविनाशी ध्रुव द्रव्य स्वरूपी है। अतः चेतनात्मा छेदी नहीं. जाती। भेदी नहीं जाती । छेदन-भेदन सर्वथा संभव ही नहीं है । जलाकर भी भस्म नहीं की जा सकती है । काटकर जिसके टुकडे भी नहीं किये जा सकते, तथा विभाग, विभाजन भी जिसका सर्वथा नहीं किया जा सकता, अतः विनाश करना किसी भी स्थिति में संभव ही नहीं है । ऐसी त्रैकालीक सत्तावान ध्रुवस्वभावी अविनाशी-शाश्वत आत्मा द्रव्य स्वरूप से है । अतः सदाकाल इस चेतनात्मा का अस्तित्व समान रूप से है । द्रव्य रूप से अस्तित्व तीनों काल में एक जैसा ही है। द्रव्यरूप से आत्मा अपरिवर्तनशील है। एक अखण्ड-असंख्य प्रदेशी द्रव्य है । अतः संसार के संसारी जीव का स्वरूप देखें या मुक्त सिद्धात्मा का स्वरूपदेखें द्रव्यरूपसे दोनों समान है। एकजैसे ही हैं । रत्तीभर या अणुमात्र भी अन्तर नहीं है । द्रव्य से अस्तित्व दोनों का एक जैसा ही है। .
परिवर्तन मात्र गुणों में होता है। पर्याय में होता है । गुण बदलते रहते हैं। पर्यायें बदलती रहती है । अतः गुण पर्याय की दृष्टी से आत्मा उत्पाद–व्यय युक्त है । परन्तु द्रव्य रूप से ध्रुव नित्य-शाश्वत है।
गुणघातक मोहनीय कर्म
जब द्रव्यरूप से आत्मा का घात-नाश संभव ही नहीं है तो फिर गुणघात, और पर्याय नाश हो सकता है । आत्मा के अनन्त गुण है । उन गुणों का घातनाश मोहनीयादि कर्मों द्वारा होता है । ज्ञानावरणीय कर्म आत्मा के ज्ञान का घात करके अज्ञानी बना देता है। मोहनीय कर्म आत्मा के गुणों का घात करके... दोष युक्त बना देता है। दूसरी तरफ गुणों का घात हो जाने के कारण उत्पन्न दोष के कारण जैसी स्थिति जीवात्मा की बनती है
आत्मशक्ति का प्रगटीकरण