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___३) तीसरे विभाग में उन-उन कर्म प्रकृतियों को बांधने के बाद जो उदय में आई है उन कर्म प्रकृतियों ने आत्मा की कैसी स्थिति कर दी है? यह दर्शाया है । गुण और स्वभाव दोनों को ही विकृत करके दोष और विभाव में डाल दी आत्मा को। और आत्मा संसारी अवस्था में वैसी क्रोधी, द्वेषी, वैरी, अभिमानी, घमण्डी, मायावी, कपटी, छल प्रपंची, लोभी, आसक्त बनाती है । दूसरी तरफ स्वभाव बिल्कुल खराब हो जाता है। हा.. हा.. ही.. ही.. हँसी मजाक की वृत्ति, पसंद-नापसंद, प्रीति–अप्रीति, भय–शोक आदि ग्रस्त भयवान, डरपोक . . . आदि अनेक प्रकार का जीव बन जाता है। उसी तरह स्त्री-पुरुष–विजातीय आकर्षण, काम-भोग और वासना की वृत्तियाँ जगती है । जीव को कामी, विकारी, वासनावाला, भोगी तथा नपुंसक बना देता है। क्या आत्मा का घात संभव है?
ज्ञानावरणीयादि प्रत्येक कर्म आत्मा के ज्ञानादि को आवृत्त करते हैं । परन्तु मोहनीय कर्म सीधे ही आत्मा के गुणों का घात करता है । यदि एक राजा के राजवंश को समाप्त करना हो और वह भी घात हिंसा न करते हुए समाप्त करना हो तो राजा को, राजकुमार को, राजकन्या को, राजारानी को, पूरे परिवार को गलत रास्ता सिखाकर दुराचारी, व्यसनी, भ्रष्ट व्यभिचारी बना देने से जल्दी से बिना मारे ही परे वंश का सत्यानाश हो जाता है। इतिहास की गर्त में दृष्टिक्षेप करने से ऐसे सैंकडों दृष्टान्त दिखाई देंगे जो दुराचार-व्यभिचार में, व्यसनों में डूबकर समाप्त हो गए। कोई जुएँ में, कोई शिकार में, कोई शराब में, कोई वेश्याओं में, कोई युद्ध में खंआर हो गए। कोई परस्त्रीगमन में, कोई विषय-वासना के काम कीडे बनकर, कोई भ्रष्टाचार में, कोई धन संपत्ति के दुर्व्यय में, तथा कोई सत्ता के मद में-नशे में समाप्त हो गए। उनका खून-हत्या या घात नहीं करना पडता है। फिर भी इस तरह समूचे राजवंश का घात–विनाश-सत्यानाश हो जाता है। नाम-निशान भी नहीं रहता है। दुनिया की दृष्टि से वे सर्वथा लोप हो जाते हैं। ..
यह तो दृष्टान्त था। ठीक इसी तरह आत्मा का नाश-सत्यानाश कैसे होता है? जो आत्मा तीनों काल में सदा शाश्वत है। त्रैकालिक नित्य है । अजर-अमर अविनाशी है। नित्य है। उसका नाश तो कभी होता ही नहीं है। द्रव्यरूप सत्ता के अस्तित्व का लोप सर्वथा तो संभव ही नहीं है। अरे ! निगोद की अव्यक्त अवस्था में भी यह आत्मा अपने अस्तित्व को टिकाकर रही। अरे ! आलू-प्याज तो क्या एक अंकुरे में अनन्त, एक फंगस-लीलफूग के एक कण (अंश) में अनन्त जीव साथ में मिलकर रहे उसमें कितने
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आध्यात्मिक विकास यात्रा