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ऐसे मिथ्यात्व से ग्रस्त जीव की स्थिति कैसी होती होगी? मात्र क्षणिक सुखभोगों को ही भोगने की उसकी वृत्ति होती है । मिथ्यात्वी दीर्घदर्शी नहीं होता है । विपरीत वृत्तिवाला, विकृत ज्ञानवाला होता है। अतः उसका विकास नहीं होता है। आध्यात्मिक विकास को साधने में वह सर्वथा असमर्थ, असक्षम होता है।
आध्यात्मिक विकास में बाधक-मोहनीय कर्म
अनादि-अनन्त काल से मोहनीय कर्म जो आत्मा पर लगा हुआ है, और उससे ग्रस्त आत्मा मोहवासित होचकी है। जैसे पानी का अपना कोई रूप-रंग-स्वाद-गंधादि कुछ भी नहीं है परन्तु निमक मिलने पर खारा, शक्कर मिलने पर मीठा, और त्रिफला मिलने पर तूरा, तथा करेले के साथ कडवा बन जाता है । लाल रंग के साथ लाल, पीले के साथ पीलापन धारण कर लेता है । ठीक उसी तरह आत्मा भी मूलभूत स्वरूप में न तो मिथ्यात्वी है और न ही रागी-द्वेषी है। न ही क्रोधी, न ही अभिमानी, मायावी लोभी कुछ भी नहीं है। मूल में हमारी आत्मा ज्ञान-दर्शनात्मक वीतरागी आदि स्वरूपवाली है। परन्तु अनादि-अनन्त काल से मोहनीय कर्म की संगत के कारण उसकी असर के कारण हमारी आत्मा बिल्कुल खारे-मीठे पानी की तरह रागी-द्वेषी-आदि बनकर बैठी है। निम्न तालिका से आत्मा के गुण और मोहनीय कर्म की प्रकृतियाँ तथा उसकी असर में आत्मा की स्थिति देखकर ज्यादा स्पष्ट समझ पाएँगे
आत्मा का गुणस्वरूप मोहनीय कर्म प्रकृति कर्माधीन स्थिति १) यथार्थ सत्य श्रद्धालु मिथ्यात्व दर्शन मोहनीय कर्म जीव मिथ्यात्वी २) शुद्ध सत्य श्रद्धालु मिश्र दर्शन मोहनीय कर्म मिश्र दृष्टिवाला . ३) शुद्धतम सत्यं श्रद्धालु सम्यक् दर्शन मोहनीय कर्म अशुद्ध श्रद्धालु ४) सदाकाल क्षमाशील अनन्तानुबंधी क्रोध मो.कर्म महाक्रोधी-द्वेषी-वैरी ५) सदाकाल नम्रता अनन्तानुबंधी मान मो.कर्म
महाअभिमानी ६) सदाकाल सरलता अनन्तानुबंधी माया मो.कर्म महामायावी ७) सदाकाल संतोष अनन्तानुबंधी लोभ मो.कर्म महा लोभी ८) सदाकाल क्षमावान अप्रत्याख्यानीय क्रोध मो.कर्म तीव्र क्रोधी ९) सदाकाल विनयी अप्रत्याख्यानीय मान मो.कर्म तीव्र घमण्डी-मानी १०) सदाकाल सरल . अप्रत्याख्यानीय माया मो.कर्म तीव्र छल-कपटी । ११) सदाकाल संतुष्ट अप्रत्याख्यानीय लोभ मो.कर्म तीव्र लोभी
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आध्यात्मिक विकास यात्रा