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से आवृत्त है - आच्छादित है । अब जितने भी कम-ज्यादा प्रमाण में जो भी ज्ञान बाहर निकलेगा वह मोहनीय कर्म की असरवाला बनकर ही बाहर निकलेगा । या फिर मिथ्यात्व से ग्रसित होकर विकृत या विपरीत बनकर बाहर निकलेगा ।
सोचिए, सबसे ज्यादा उदय किसका है ? मिथ्यात्व का या विषय-कषाय का ? बिषय वासना के निमित्त मिलने पर प्रकट होता है। और कंषाय - क्रोधादि भी तथाप्रकार के निमित्त मिलने पर प्रकट होता है । परन्तु मिथ्यात्व तो सदा काल रहता है। प्रतिक्षण उदय में रहता है। वह निमित्त मिले या न भी मिले तो भी विचार स्तर पर ... प्रकट होता ही रहता है । इसलिए विषय - कषाय की अपेक्षा भी मिथ्यात्वी अनेक गुना ज्यादा खतरनाक है । विषयग्रस्त ज्ञान वासना - विकारों से रंगकर वैसा बनकर निकलेगा । कषाय
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से ग्रसित होकर ज्ञान राग-द्वेष के रंग से रंगा हुआ, क्रोधादि से अभिभूत होकर निकलता है । परन्तु मिथ्यात्व के रंग से रंगा हुआ ज्ञान... विकृत और विपरीत होकर निकलता है। सच्चे ज्ञान में आत्मा-परमात्मा - मोक्षादि तत्त्वों की सच्चाई - वास्तविकता पडी हुई है परन्तु मिथ्यात्व के कारण वही ज्ञान विपरीत होकर बाहर निकलता है... कि नहीं... नहीं आप जैसी कोई चीज है ही नहीं ? किसने कहा परमात्मा - या भगवान है ? नहीं भगवान- या ईश्वरादि कोई है ही नहीं । और मोक्षादि का तो सवाल ही खड़ा नहीं होता है । किसने देखा है मोक्ष ? कौन कहता है मोक्ष है ? ऐसे विचारों के सामने यदि आप उत्तर दे दो कि भगवान् सर्वज्ञ प्रभु महावीरस्वामी ने कहा है कि.. आत्मा परमात्मा मोक्षादि है। तो मिथ्यात्वी यहाँ तक कह देगा कि नहीं, नहीं, अरे ! महावीरस्वामी ही हुए थे कि नहीं ? इसी में शंका है । किसने कहा महावीरस्वामी हुए थे ? और यदि हुए भी हो तो वे भगवान बने इसमें क्या प्रमाण है ? नहीं, ये सब हंबक - बोगस बातें हैं ।
ऐसी कुतर्कों की मायाजाल की विचारधारा को वाणी के व्यापार से बाहर फेंक देना ही उसको आता है । गाढ मिथ्यात्व है। क्या करें ? यदि उसको पूछो कि ... बोलो भाई भगवान कैसे होने चाहिए ? तुम्हारे मत से भगवान का स्वरूप कैसा होना चाहिए ? तुम कैसे को भगवान कहने के लिए तैयार हो ? लेकिन मिथ्यात्वीं के पास सत्य ज्ञान है ही कहाँ कि वह उसे प्रगट करें ? मिथ्यात्वी के लिए तत्त्वभूत आत्मादि सभी पदार्थों का अभाव अभाव है। बस, कुछ है ही नहीं। जो कुछ है वह सब एक मात्र... दृश्यमान जगत ही
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है । जो कुछ दिखाई देता है इन्द्रियों से देखा-सुना-जाना जाता है, और भोगा जाता है बस, उतना ही संसार है । इससे ज्यादा, इससे परे कुछ भी नहीं है, इसके सिवाय कुछ है ही नहीं ? इसलिए निरर्थक क्यों मानना ? जानना ? समजना ? क्यों आचरण करना ?
आत्मशक्ति का प्रगटीकरण
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