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________________ I है । क्योंकि मूल में तन्तु सफेद ही थे। रूई खेती के समय सफेद ही थी। कभी भी कोई भी रूई लाल-पीली - काली पैदा ही नहीं होती है । उत्पन्न ही नहीं होती है। ठीक इसी तरह मूल में ज्ञान सत्यस्वरूप ही होता है । भले ही वह प्रमाण में कम हो या ज्यादा इससे मतलब नहीं है । सोना थोडा हो या ज्यादा इस प्रमाण से सुवर्ण की सत्यता - सच्चाई और वास्तविकता में कोई फरक नहीं पडता है । वैसे ही ज्ञान प्रमाण में कम हो या ज्यादा उसकी सत्यता - सच्चाई में कोई फरक नहीं पडता है। मूलभूत समस्त ज्ञान सत्यस्वरूप - सच्चा ही होता है । परन्तु मोहनीय कर्म उसे अपने मिथ्यात्व के कारण असत्य-भ्रान्त... I . विपरीत या विकृत कर देता है । ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम की न्यूनाधिकता से तो मात्रं ज्ञान की कम या ज्यादा प्रमाण में मात्रा रहेगी । बस, इससे ज्यादा और क्या ? परन्तु ज्ञान विपरीत - विकृत हुआ है तो वह एक मात्र मोहनीय कर्म के कारण । मोहनीय कर्म में दो-तीन प्रकृतियाँ पडी हुई है । १) मिथ्यात्व मोहनीय, २) सम्यक्त्व मोहनीय, ३) मिश्र मोहनीय । ये तीनों कर्म की प्रकृतियाँ ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशमभाव से प्रगट ज्ञान को लेकर अपने रंग से रंगकर विकृत - विपरीत बनाकर ही व्यवहार में लाता है । जैसे एक बल्ब से प्रकाश जैसा निकलता है। उसके आगे यदि लाल, पीला, हरा पारदर्शक पेपर लगाया जाय तो प्रकाश भी लाल, पीला हरा ही निकलेगा। वैसे ही हमारा ज्ञान अब जो भी, और जितना भी प्रगट होता है वह सब मोहनीय कर्म से, मिथ्यात्व से ग्रसित होकर विकृत एवं विपरीत ही Inr बन जाता है । चित्र के अनुसार इसे समझने की कोशिष करिए... उदाहरण के लिए एक भगोना (तपेला) हो और उस पर ४-५ छेदवाला ढक्कन फिट किया हुआ हो ... अब यदि भाप निकलेगी तो मात्र उन छोटे-छोटे छिद्रों में से ही निकलेगी। उतने ही प्रमाण में निकलेगी। या प्रकाश जो निकलेगा वह उन छिद्रों में से उतना ही और लाल-पीले काँच के कारण वैसा लाल-पीला निकलेगा । ठीक इसी तरह हमारा सारा ज्ञान मोहनीय कर्म ७९८ • आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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