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________________ पदार्थ हैं- आत्मा-परमात्मा-मोक्षादि । ऐसे पदार्थों के विषय में- इन तत्त्वों के विषय में ज्यादातर जीव भ्रान्ति-भ्रमणा खडी कर देते हैं। क्योंकि ये आत्मादि पदार्थ इन्द्रिय प्रत्यक्ष के विषय नहीं है । दृष्टिगोचर नहीं होते हैं । अतः इनके ही विषय में जितनी भ्रमणा फैलती है उतनी दृश्य-इन्द्रिय प्रत्यक्षजन्य विषयों में नहीं फैलती है । वे पौगलिक भौतिक पदार्थ हैं। इन्द्रिय ग्राह्य हैं। इसलिए सामान्य जीवों को भी इनमें भ्रमणा कम होती है। परन्तु आत्मा-परमात्मा मोक्ष-लोक-परलोक-स्वर्ग-नरक पूर्वजन्मपुनर्जन्म, कर्म, आदि अनेक तत्त्वभूत पदार्थ मात्र ज्ञानगम्य हैं । इन्द्रिय ग्राह्य नहीं हैं । चाक्षुष नहीं हैं। इसलिए भ्रान्ति के विषय बनते हैं। मन भी चक्षुग्राह्य नहीं है और आत्मा भी चाक्षुष नहीं है । अतः दोनों में भ्रान्ति-भ्रमणा की संभावना काफी ज़्यादा है । कई धर्मों ने, कई दर्शनों ने, कई पन्थों, पक्षों और सम्प्रदायों ने अपनी-अपनी स्वमति कल्पनाओं से आत्मा-मन आदि का सारा स्वरूप विकृत कर दिया है.। किसी दर्शन ने तो आत्मा-परमात्मा मोक्षादि तत्त्वों को माना ही नहीं, और यदि किसीने माना भी है तो सर्वथा विपरीत स्वरूप माना। तो किसी ने अधूरा ही माना, तो किसी ने भ्रान्तिवश आत्मा की बातें मन पर बैठा दी, और स्वर्ग की बातों मोक्ष के नाम पर बैठा दी। परिणाम स्वरूप कोई मन को ही आत्मा कहता है तो कोई स्वर्ग को ही मोक्ष के रूप में मानता है । ईश्वर जो सृष्टि का रचयिता, संहारकर्ता आदि कुछ भी नहीं है उसे वैसा मान लेना, उसे ही भ्रान्तिवश सुख-दुःख का दाता-हर्ता मान लेना यह भी भ्रमणा है। इस तरह मानव ने भ्रान्तियाँ-भ्रमणाएँ खडी करके अनेक पदार्थों को विकृत कर दिया। स्वरूप ही खराब कर दिया। अतः शुद्ध सत्य स्वरूप पदार्थों का दृष्टि समक्ष आता ही नहीं है। इसीलिए आवश्यकता है एक मात्र सर्वज्ञ के ही द्वारा बताए गए तत्त्वों को स्वीकारने की और वह भी जैसा स्वरूप जिस अर्थ में बताया उसी अर्थ में स्वीकारने की । इसीलिए सर्वज्ञ की श्रद्धा का महत्व अत्यन्त ज्यादा है । बिना सर्वज्ञ के चरम सत्य का स्वरूप अन्य कोई नहीं बता सकता है। अतः सर्वज्ञ पर पूर्ण श्रद्धा रखनी ही चाहिए। सर्वज्ञ और वीतरागी ही हमारी श्रद्धा के केन्द्र बिन्दु होने चाहिए। इनको ही बनाने चाहिए। क्योंकि ये ही पदार्थ का अन्तिम सत्यस्वरूप सिद्धान्त प्रतिपादित करते हैं । इनके सिवाय जगत् में कोई अन्य है ही नहीं। इस तरह हम अपने अज्ञान की भ्रान्ति-भ्रमणाओं की निवृत्ति कर सकते हैं। इसके सिवाय अन्य कोई विकल्प ही नहीं है। ७९६ __. आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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