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________________ 1 में कथन करते कहते समय 'स्याद्' शब्द से अलंकृत- अंकित करके कहने की भाषा पद्धति को 'स्याद्वाद' कहते हैं। सचमुच स्याद्वाद - अनेकान्तवाद - सापेक्षवाद अपने आप में कोई सिद्धान्त नहीं है परन्तु सिद्धान्तों की परीक्षा करने की पद्धति है । जैसे कसौटी स्वयं सुवर्ण नहीं है परन्तु सुवर्ण को सही है या नहीं ? यह पहचानने की परीक्षक साधन पद्धति है । ठीक उसी तरह स्याद्वाद पदार्थ की पूर्ण सत्यता को व्यक्त करने की पद्धति है । यह कसौटी की तरह पदार्थ के स्वरूप की परीक्षा करके सत्य एवं पूर्ण सिद्ध करता है । वस्तु के अनेक धर्मों में से किसी भी धर्म का लोप न हो जाय इसके लिए एक धर्म की एक अपेक्षा से विवक्षा करते समय दूसरी अपेक्षा से दूसरा धर्म भी जो मौजूद है उसका भी ख्याल कराना स्याद्वाद का कार्य है। जैसे हाथी एक अंग का नाम नहीं है । सर्व अवयवों का सम्मिलित रूप हाथी है । अतः स्याद्वाद का काम है किसी भी अवयव या अंग विशेष की उपेक्षा न होने देना, उसका भी बरोबर स्मरण कराना और व्यवहार कराना । 1 1 नयवाद एकान्तवादि है। एक नय एक समय एक ही बात की विवक्षा करता है । दूसरे धर्म की तरफ वह उपेक्षा करता है । देखता भी नहीं है । अतः नयवाद प्रमाण सप्तभंगी नहीं है । परन्तु स्याद्वाद में नयवाद से ठीक उल्टा है। यहाँ 'स्यात्' शब्द जो निपात सिद्ध अवयव हैं वह अपनी बात एक अपेक्षा से कह देने के बाद भी अन्य धर्मों के प्रति स्यात् अपेक्षा को अंकित करता है । बरोबर संकेत करता है। अनेक धर्म है। एक एक धर्म की विवक्षा से एक एक सप्तभंगी बनती है। सात भंगो का आधार सात प्रकार के प्रश्नों से होता है । और सात ही प्रकार के प्रश्नों का आधार सात प्रकार की जिज्ञासाओं पर आधारित है। इस तरह निश्चित रूप से सात ही भंग होते हैं। न तो ज्यादा और न ही कम । इस तरह भिन्न-भिन्न धर्म की विवक्षा से अनेक सप्तभंगीयां होती है । स्याद्वाद पद्धति से वस्तु का पूर्ण बोध प्राप्त किया जाता है । यह सर्वज्ञ प्रणीत है । इसे ही स्वीकारनेवाला सम्यग् दृष्टि कहलाता है । अन्यथा विपरीत रूप से मिथ्यात्वी कहलाता है । अतः जिसे सत्यवादि बनना है उसे निश्चितरूप से स्याद्वादि बनना अनिवार्य 1 है। अन्यथा असत्यवाद - मिथ्यात्वी बनेगा । पदार्थ के पूर्ण - एवं सत्यस्वरूप को कभी भी नहीं जान-समझ पाएगा। अतः स्याद्वाद का आश्रय अत्यन्त आवश्यक है । भ्रान्तिवश अज्ञान यथार्थ सत्य के अभाव में भ्रान्ति और भ्रमणाओं को खड़ी करके जीव अज्ञान को भी मानकर व्यवहार कर लेता है। इनके विषय बनते है- अदृश्य तत्त्व । जो तत्त्वभूत 1 आत्मशक्ति का प्रगटीकरण .. ७९५
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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