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अशुद्ध स्वरूप भी स्पष्ट देखना है । तथा कर्मों से ग्रस्त अशुद्ध स्वरूप को भी स्पष्ट देखना है। कर्म उदय से औदायिक भाव से सभी कर्मों का उदय होता ही रहता है । प्रति क्षण-क्षण प्रत्येक कर्म का उदय होता ही रहता है। कर्म के उदय के कारण वेदन - वेदना - संवेदनाएँ उद्भवती ही रहती है । अनन्तकाल में ऐसी एक भी क्षण नहीं गई कि जिस क्षण किसी न किसी कर्म का उदय न हुआ हो । समुद्र में लहरें चलती ही रहती हैं। ज्वार भाटा के रूप में लहरों का उद्भवना, चलना, किनारे तक पहुँचना और वापिस शमन होकर परावर्तित होना । यह क्रम निरंतर अखण्ड रूप से चलता ही रहता है । अनादि काल से चल रहा है। और भावि में अनन्त काल तक चलता ही रहेगा ।
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समुद्र का पानी ध्रुव स्वरूप से नित्य शाश्वत है । और उसमें उत्पन्न होती विलीन होती लहरें पर्याय स्वरूप से अनित्य हैं, क्षणिक हैं, नाशवंत हैं। उत्पाद - व्यय निरंतर चलता ही रहता है । लहरें उत्पन्न होकर चलनी यह उत्पाद है और पुनः विलीन हो जानी यह व्यय है । इस तरह लहरों की पर्याय अपेक्षा से समुद्र उत्पाद व्यय स्वरूप है । और मूल समुद्र द्रव्य की अपेक्षा से ध्रुव नित्य स्वरूप है । यदि समुद्र ही नहीं होता तो लहरें कहाँ चलती ? अतः पर्यायों का आधार द्रव्य पर है । समुद्र के पानी का क्षारीय स्वरूप, खारापन यह उसका गुण है । यही सर्वज्ञ महावीर प्रभु ने बताया हुआ सापेक्षवाद का सिद्धान्त है – स्याद्वाद है । इसमें द्रव्य - गुण - पर्याय तीनों का ग्रहण है । तदनुसार उत्पाद, व्यय और धौव्यात्मक स्वरूप का ज्ञान स्पष्ट है। सचमुच यही सम्यग्ज्ञान है। इसपर ही चरम सत्य स्वरूप सम्यग्दर्शन का आधार है ।
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यदि इस त्रिपदी में से ध्रुव स्वरूप पदार्थ को छोड़ दिया जाय और मात्र उत्पाद - व्ययात्मक द्विपदी का ही स्वरूप स्वीकार करके सिर्फ उत्पाद - व्यय उत्पाद–व्यय... देखकर... पदार्थ को क्षणिक - नाशवंत, विनाशशील या शून्य - अनित्य कह दिया जाय तो पदार्थ के पूर्णस्वरूप का बोध नहीं होगा। अधूरा ज्ञान बडा खतरनाक नुकसानकारक होता है। A Litle knowledge is more dangerous की कहावत गलत नहीं है । त्रिपदीमय स्वरूप ही शुद्ध स्वरूप है। और सत्य ज्ञान है । द्रव्य - गुण - पर्याय तीनों दृष्टि से पदार्थ का स्वरूप ग्रहण करना ही सम्यग् - सत्यस्वरूप है । इसी दृष्टि से करने के लिए सम्यग्ज्ञानार्थ ही श्री महावीर प्रभु ने स्याद्वाद - सापेक्षवाद - अनेकान्तवाद की विशद दृष्टि बताई है।
अनेकान्तवाद का सीधा अर्थ है - अनन्तधर्मात्मक वस्तु को अनेक दृष्टि बिन्दुओं से, अनेक अपेक्षाओं से सहित सापेक्ष ज्ञान प्राप्त करना ही सापेक्षवाद है । उसे ही भाषा
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आध्यात्मिक विकास यात्रा