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________________ विचार तरंगे वाणीतंत्र से व्यक्त होकर बाहर की दुनिया में प्रसरती है । अतः वाणी विचारों के ज्ञान को प्रगट करने का माध्यम मात्र है । विचारतन्त्र में संवेदनाओं की अभिव्यक्ति मन पटल पर भी पडती है । और देहतन्त्र पर भी अभिव्यक्त होती है । परन्तु देह में उत्पन्न नहीं होती है । अभिव्यक्त होती है । उद्गम स्रोत तो आत्मा ही है। आत्मा पर मोहनीय कर्म का आवरण है, मोहनीय कर्म - राग-द्वेषात्मक है । और विषय -- कषायादि उसके अंग हैं इनके निरंतर उदय से जो ज्ञानगुण ज्ञानावरणीय कर्म से आवृत्त है उसमें से ज्ञान की जो भी किरण निकलती है। वे ज्ञान किरणें मोहनीय कर्म के उदय से रांगात्मक - द्वेषात्मक विषयात्मक—–कषायात्मक बनती हैं और मनतन्त्र पर आकर वहाँ से वाणी द्वारा बाहर व्यक्त होती है । या फिर देहतन्त्र पर आकर अभिव्यक्त होती है । वेदनीय आयुष्य क्षेत्र कर्म मिथ्यात्व मोहनीय भोह मोहनीय मोहनीय नया नोकवाय मोहनीय अतः मात्र देह पर ही होती हुई संवेदनाओं को देखते रहने से चेतना देहाकार बनती है । देह पर उद्भवती वेदना को देखना सामान्य पश्यना है। विशेष अर्थ में विपश्यना नहीं है । क्योंकि देह में उद्भुत वेदना का अनुभव संसार के सभी जीव मात्र करते हैं । इसमें कोई आश्चर्य ही नहीं है । परन्तु विशेष अर्थ में विपश्यना तो तब होगी जब संवेदनाओं के मूल उद्गम स्रोत को पहचान सके, मूल वेदन ज्ञानात्मक है । जो ज्ञानावरणीय कर्म जन्य है, वेदना - वेदनीय कर्म जन्य पीडात्मक-वेदनात्मक है । संवेदना - मोहनीय कर्मजन्यराग-द्वेषात्मक है। सुख - दुःख की अनुभूति वेदनीय कर्म के कारण है रागात्मक—द्वेषात्मक, अनुकूलात्मक, प्रतिकूलात्मक आदि सब कुछ मोहनीय कर्म जन्य है। अब हमें विशेष अर्थ में- विशिष्ट स्वरूप में विपश्यना करनी है। क्या करेंगे? कैसे करेंगे ? 1 मैं एक शुद्ध चैतन्य द्रव्य हूँ । ज्ञानादि गुणवान चेतन आत्मा हूँ । ध्रुवस्वरूप से मैं अनादि-अनन्त, अनुत्पन्न — अविनाशी, शाश्वंत - अजर-अमर चेतन द्रव्य स्वरूप हूँ । ऐसा स्पष्ट दर्शन ... अनुभव में लाना है । कर्मजन्य स्थिति के कारण ८ कर्मों से ग्रस्त अपना आत्मशक्ति का प्रगटीकरण ७९३
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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