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________________ कि... कपडा है तो सफेदीपना है। सूर्य है तो प्रकाश है। आधार के अभाव में आधेय कैसे रहेगा? इसी तरह द्रव्य ध्रुव अवस्था में नित्य है तो ही पर्यायों का उत्पाद-व्यय संभव होगा। द्रव्य ही न हो तो पर्याय का अस्तित्व कैसे माने ? और पर्याय का अस्तित्व ही न हो तो फिर उत्पाद-व्यय किसका? किसमें? यह निश्चित समझिए की द्रव्य है तो गुण–पर्याय है, और गुण-पर्याय है तो द्रव्य है । अतः एक दूसरे का एक दूसरे के साथ अविनाभाव संबंध है। बिना द्रव्य के पर्याय नहीं रहती और बिना पर्याय के द्रव्य नहीं रहता। ठीक इसी तरह बिना गुण के द्रव्य नहीं रहता, और बिना द्रव्य के गुण नहीं रहता। बिना सर्य के किरणें- प्रकाश नहीं और बिना प्रकाश का सर्य नहीं। दोनों ही परस्पर आश्रित है। सोने के बिना गहनों की पर्याय कैसे रहेगी? और सुवर्ण पर्याय के बिना मुलभूत सुवर्ण द्रव्य किस तरह रहेगा? यह सर्वज्ञ का त्रैकालिंक सिद्धान्त है। । बौद्धों ने मात्र पर्याय की प्राधान्यता मानकर उत्पाद–व्यय के आधार पर क्षणिकता कह दी। परन्तु ध्रुवावस्था का विचार भी नहीं किया। अतः पदार्थ का चरम सत्य प्रकट नहीं कर सके । चरम सत्य जो भगवान महावीर ने कहा है उत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययुक्त ही पदार्थ होता है । तदतिरिक्त नहीं । गुण-पर्याय युक्त ही द्रव्य होता है। तदतिरिक्त नहीं। या यदि सिद्धान्त है तो वह चरम सत्यरूपकालिक होना चाहिए। और यदि परिवर्तनशील है, कालिंक नहीं है तो कई शाश्वत चरम सत्यरूप सिद्धान्त नहीं है। तत्त्वज्ञानाधारित आचार-व्यवहार- . ... जगत में जिस जिस धर्म का जो जो आचार स्वरूप है, व्यवहारात्मक स्वरूप है उसका आधार उस धर्म के सिद्धान्तों पर है। सिद्धान्तों का आधार तत्त्वज्ञान पर है। यदि तत्त्वज्ञान सही है, सिद्धान्त सत्य है तो ही उस पर आधारित आचार-व्यवहार सही हो सकेगा। अन्यथा विपरीत होगा। तत्त्वज्ञान की व्यवस्था चरम सत्य के सिद्धान्त पर आधारित न होने के कारण उसके आधार पर आचारादि की जो भी व्यवस्था बैठाई जाती है वह सब मिथ्या विपरीत सिद्ध होती है। अतः वह सर्वथा निरर्थक है, घातक है, नुकसान कारक है । भावि में जनम जनम भटकानेवाली है । अतः मिथ्याअसत्य मार्ग का अनुसरण सर्वथा भूल से भी नहीं करना चाहिए। याद रखिए सिद्धान्त की चरम सत्यता का आधार एक मात्र सर्वज्ञ पर ही है। तदतिरिक्त किसी पर भी नहीं । सर्वज्ञ महावीर अन्तिम सत्य आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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