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में तो क्षण नष्ट हो जाय? यदि आप कहे कि प्रतिक्षण नष्ट होते हुए भी क्षण धारा (सन्तति से वह नित्य था। तब तो देखा । तो यह क्षण सन्तति का सिद्धान्त देखनेवाले तथा जिसको देख रहा था वह पदार्थ उभय पदार्थ को लागू होगा। यदि प्रथम क्षण नष्ट होते होते द्वितीय क्षण को उत्पन्न करती है और इस तरह क्षण संतति की परंपरा बनती है तो फिर क्षणसन्तति की परंपरा के अर्थ में ही सही पदार्थ को नित्य मानने की आपत्ति आएगी। इस सिद्धान्तानुसार संसार के अनन्त ही पदार्थ नित्य शाश्वत मानने पडेंगे। लेकिन क्षणवाद का सिद्धान्त माननेवाला बौद्ध दर्शन पदार्थ का ऐसा स्वरूप कहकर-मानकर भी उसे नित्य-शाश्वत मानने के लिए इन शब्दों का प्रयोग करने के लिए तैयार ही नहीं है।
दूसरी तरफ पदार्थ की क्षणिकता देखकर दृष्टा कहने जाय इतनी देर में तो वह भी . क्षणिक हो गया। जिस क्षण में देखा था वह क्षण तो चली गई । अब कहने प्रतिपादन करने के समय वह कहनेवाला तो है ही नहीं? क्षण धारा तो बदल गई । नदी प्रवाह का दृष्टान्त देते हैं। जिस तरह नदी प्रवाह रूप से बहती है । जल समूहात्मक नदी समूह रूप से नित्य है । और बहते जल के प्रमाण के कारण अनित्य है । गंगा नदी बहती ही है। असंख्य अगणित वर्षों से बहती ही जा रही है । प्रवाह के बहते रहने के कारण वही पानी है ऐसा व्यवहार कोई नहीं करता है । पानी वही नहीं है । परन्तु सजातीयता की सादृश्यता के कारण पानी का ही व्यवहार होता है और पानी के ही समूहात्मक प्रवाहात्मक स्वरूप को ही तो नदी कहते हैं ? तो क्या नदी अर्थ में पदार्थ को नित्य मानने के लिए बौद्धवादि तैयार हैं? यदि हैं तो उनके मत में संसार का कोई भी पदार्थ अनित्य नाशवंत हो ही नहीं सकता है । सभी पदार्थों को क्षण की प्रवाहात्मकता का सिद्धान्त लागू होता है। ... ___ इस सिद्धान्त से फिर आत्मा का अस्तित्व नष्ट नहीं हो सकता । जब क्षणप्रवाह का सिद्धान्त अन्य सभी पदार्थों को लागू हो सकता है, तो फिर आत्मा को क्यों नहीं लागू होता? क्षणिकवादियों ने आत्मा को क्षणिक नहीं कहा परन्तु आत्मा का अस्तित्वहीं सर्वथा उडा दिया। नैरात्म्यवाद कहकर उस आत्मा को मानना ही नहीं। आखिर क्यों? क्षणिक कहते तो भी आत्मा का अस्तित्व तो रहता। क्योंकि क्षणिक कहने के कारण भी क्षणसंतति स्वीकारने से आत्मा की भी नित्यता उनकी दृष्टि से आ जाती। परन्तु जब अस्तित्व ही उडा दिया है तो क्या करना ? फिर संस्कार-वासनादि को मानना... परन्तु उनका आधार द्रव्यभूत पदार्थ कौन? यदि द्रव्यभूत पदार्थ का ही अस्तित्व नहीं है तो फिर संस्कार-वासनादि का आधार कौन? क्या आधार-आधेय भाव का सिद्धान्त गलत है ? जी नहीं ! यदि संस्कार-वासनादि आधेयभूत है तो उनके रहने के लिए किसी को भी
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आध्यात्मिक विकास यात्रा