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कहकर व्यवहार कर रहे हैं। इस तरह सेंकडों प्रकार की भ्रान्तियां कर रहे हैं। अरे ! आपको यह जानकर बडा भारी आश्चर्य होगा कि ध्यान साधना को करने-कराने और दुनिया को सिखानेवाले धर्म और दर्शन या ऐसा पंथविशेष जो आत्मा को सर्वथा मानने के लिए तैयार ही नहीं है। मानना तो दूर रहा लेकिन उसका सर्वथा निषेध करते हैं। ढोल पीट पीटकर चेतनात्मा है ही नहीं, उसका कोई अस्तित्व ही नहीं है ऐसा निषेध करके दुनिया कोल्टे रास्ते ले जा रहे हैं। फिर भी उसे ध्यान कह रहे हैं। बिना पटरी के ट्रेन और बिना पानी के नौका चलाने जैसी बातें सिखाई जा रही है। अफसोस जनता की अज्ञानता का • फायदा उठाकर उन्हें और गलत रास्ते - मिथ्यात्व के रास्ते चढाया जा रहा है ।
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आत्मा का निषेध करना और आत्मा के ज्ञानादि का सारा व्यवहार मन पर आरोपित करके अपना व्यवहार चलाना है। मन जो सर्वथा जड है उसमें ज्ञानादि चेतना का व्यवहार करना है । जड में ज्ञानादि की चेतना का व्यवहार ही करना है तो फिर एक मात्र मन में ही क्यों करना ? फिर तो किसी भी जड पदार्थ में कर सकते हैं। शरीर भी जड है, इन्द्रियाँ • भी जड़ हैं उनमें भी व्यवहार कर सकते हैं। चार्वाक मतवादि नास्तिक शरीर को ही आत्मा मानते हैं । वे शरीर से भिन्न आत्मा का व्यवहार नहीं करते हैं । अतः देहात्मवादि है । सच पूछा जाय तो उन्हें आत्मा से कोई मतलब ही नहीं है । ठीक है । आत्मा नामक शब्द भाषा के व्यवहार में अनादि काल से प्रचलित एवं प्रसिद्ध है तो फिर उसका आरोपण शरीर पर करके व्यवहार कर लेना उनका मत है। चार्वाक एकान्त रूप से अदृश्य तत्त्व को मानते ही नहीं है । वे एकान्त रूप से एकमात्र दृश्य जंड की सत्ता ही स्वीकारते हैं । तदतिरिक्त किसीकी भी नहीं ।
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बौद्ध दर्शनवादि आत्मा का अस्तित्व सर्वथा स्वीकारने के लिए तैयार ही नहीं है । वे सर्वं क्षणिकं सर्वं शून्यं सर्वं अनित्यं सर्वं नश्वरं - नाशवंतं कहकर ही जयघोष का पटह बजाते हैं । सर्व शब्द से सभी पदार्थों को साथ ले लिया है। जड़-चेतन किसी का कोई द ही नहीं है । नित्यानित्य किसीका कोई भेद ही नहीं है। उनके मत में घोडे-गधे सब एक समान ही हैं। शाश्वत और अशाश्वत सभी पदार्थ एक जैसे ही हैं। चेतनात्मा को भी अनित्य-नाशवंत कहकर उसकी नित्यता शाश्वतता का निषेध करने के बजाय उस मूलभूत पदार्थ का ही निषेध कर देना बौद्धों ने मुनासिफ समझा। आपको यह आश्चर्य होगा कि एक तरफ तो पदार्थों को शून्य कहा और फिर उनको क्षणिक कहा । यह कहाँ तक न्यायसंगत हो सकता है ? "शून्य" का क्या अर्थ करना ? जो पदार्थ शून्यरूप ही है । उनको फिर अनित्य क्षणिक कैसे कहना ? यदि पदार्थ का अस्तित्व ही नहीं है तो फिर
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आध्यात्मिक विकास यात्रा