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...बस, तेरा मोहान्धकार कहीं दूर भागकर खडा हो जाएगा। इसी ज्ञान से तूं तेरा मोह संताप दूर कर । चित्त जो तेरा डगमगाता है वह भी एक मात्र मोहनीय कर्म की प्रकृतियों के उदय के कारण ही है । अतः यह समझकर तूं तेरा आत्मज्ञान प्रकटकर और उसे ही पालने में शक्ति का प्रयोग कर । अपनी आत्मा के गुणों का सहज रूप में पालन कर ।
आखिर मन क्या है?
हजारों लाखों-सभी लोगों के मुंह से प्रायः एक ही बात सुनी जाती है कि... मन बहुत ही ज्यादा चंचल है, चपल है, बहुत ही ज्यादा अस्थिर है, यह क्षणभर भी स्थिर नहीं रह पाता है। इस तरह मन के बारे में लाखों लोगों के उद्गार ऐसे ही हैं । मेरा प्रश्न यह है कि मन सर्वथा जड है? जी हाँ, सर्वथा जड है। मन चेतन नहीं है। चेतन तो एक मात्र आत्मा ही है । समस्त अनन्त ब्रह्माण्ड में सिर्फ दो ही तो पदार्थ है, जो द्रव्यभूत है । द्रव्यरूप जिनका अस्तित्व है उनमें एक चेतन आत्मा और दूसरा अजीव(निर्जीव) पदार्थ । बस, इन दो से अतिरिक्त तीसरे किसी भी अन्य पदार्थ की सत्ता या अस्तित्व है ही नहीं। इन दो पदाथा में भी चेतनात्मेतर शेष सभी निर्जीव पदार्थ जो हैं उनमें किसी में भी ज्ञान दर्शनादि की चेतना शक्ति का संचार ही नहीं है । अतः चेतना युक्त आत्मा ही एकमात्र ज्ञानादि गुण युक्त है । तदितर शेष सभी द्रव्य ज्ञानादि चेतना रहित हैं।
चेतनेतर आत्मेतर अर्थात् आत्मा से भिन्न जितने भी पदार्थ हैं वे सभी अपने अपने गुणों के धारक हैं। परन्तु चेतना के ज्ञानादि गुण के धारक वे सर्वथा नहीं है। मन की गणना किसमें करेंगे? निश्चित रूप से ध्यान में रखिए कि..न तो मन चेतनात्मा है और न ही चेतनात्मा मनरूप हैं। जी नहीं । ये दोनों सर्वथा स्वतन्त्र द्रव्य है । अतः कृपया एक दूसरे का मिश्रण संमिश्रण करने की भ्रान्ति खडी न करें। या एक दूसरे को एक दूसरे के अन्तर्गत गिनने की बालिश चेष्टा भी सर्वथा न करें। यह बहुत बड़ी भूल होगी। जो पदार्थ अपने आप में जैसा है जिस स्वरूप का है उसे ठीक वैसा ही उसी स्वरूप में मानना-जानना चाहिए। यही सत्य स्वरूप होगा। सत्य स्वरूप मानने-जानने पर ही सम्यग् दर्शन कहलाएगा आएगा अन्यथा पुनः असत्य स्वरूप स्वीकारने पर मिथ्यात्व का दोष । आएगा।
__ आज हजारों सम्प्रदायों-मतों ने मन और चेतनात्मा के बारे में ऐसी भ्रान्तियाँ खडी कर दी है कि बात मत पूछिए। कोई चेतनात्मा को ही मन के रूप में मानकर व्यवहार कर रहे हैं, तो कोई मत,पंथ या सम्प्रदाय अपनी मनघडंत व्याख्याएं बनाकर मन को ही चेतनात्मा
आत्मशक्ति का प्रगटीकरण
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