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है। कई परिवारों में आंसुओं की गंगा सूखती ही नहीं हैं तो कहीं किसी घर में मोती की तरह बिखरती दंत पंक्ति छिपती ही नहीं है। कहीं दांत तोड दिये जाते हैं तो कहीं अपने आप गिरते दांत वापिस आते ही नहीं हैं। कहीं किसीकी मृत्यु में शोकाकुल है, तो कहीं कोई शादियों की सूरावली में झूम रहे हैं । कहीं पुत्र जन्मोत्सव का आनन्द मनाया जा रहा है, तो कहीं मृत्यु की श्मशान यात्रा में आंसू की नदियां बहती जा रही है। कहीं चिता पर नश्वर देह को अग्निदाह दिया जा रहा है। प्रियतम का देह अग्नि ज्वाला की लपटों में लिपटा हुआ नष्ट हो रहा है तो कहीं कोई माता पुत्र को जन्म देकर देह को संवार रही है। कहीं मकान बनाया जा रहा है तो कहीं बना बनाया तोडकर गिराया जा रहा है । इसतरह परस्पर विरोधाभासी प्रवृत्तियों के सतत प्रवृत्तिशील यह सारा संसार एक मात्र मोहनीय कर्म का विराट साम्राज्य है । मोहराजा इसका चक्रवर्ती सम्राट बनकर बैठा है । और अपना एकचक्रीशासन चला रहा है । अनन्तकाल से एकहस्त सत्ता चला रहा है । बस, इस और ऐसे मोह की चुंगुल से बचकर बाहर निकला वही शाश्वत सुख का भोक्ता बन सका। अन्यथा मोहपाश में बंधे हुए गुलाम की तरह आधीन बनकर दास होकर पड़ा रहा वह छुटकारा नहीं पा सका।
मोहान्धकारे भ्रमतीह तावत्, संसारदुःखैश्च कदर्यमानः । . यावद्विवेकार्क महोदयेन, यथास्थितं पश्यति नात्मरूपम् ।।
- संसार के दुःखों से त्रस्त जीव मोहरूपी अन्धकार से व्याप्त इस संसार में वहाँ तक ही परिभ्रमण करता है, जहाँ तक विवेकरूपी सूर्य के महान उदय से यथार्थ सत्यरूप आत्मा के ज्ञान का स्वरूप वह नहीं पहचानता है । अतः आवश्यकता है मोह के स्वरूप को समझकर मोह का क्षय करने की, मोहदशा कम करते करते सर्वथा निर्मोही बनने की। चेतन को हितशिक्षा____ मोहनीय कर्म का क्षय करने के लिए चेतनात्मा को उपाय सूचित करते हुए सुन्दर हितशिक्षा “अमृतवेल” की सज्झाय में दी है ।
चेतन ! ज्ञान अजुवालीए, टालीए मोह संताप रे।
चित्त डम डोलतु वालीए, पालीए सहज गुण आप रे॥ - हे चेतन ! तूं तेरा आत्मज्ञान प्रकट कर । सूर्य के उदित होते ही.. प्रकाश रश्मियां प्रसरते ही अमावस्या का घोर निबिड अन्धेरा जिस तरह क्षणभर भी ठहरता नहीं है, ठीक उसी तरह, हे चेतन ! तूं अनन्तज्ञानी है । तेरे आत्मज्ञानरूप प्रकाश को प्रकट कर फैला दे
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आध्यात्मिक विकास यात्रा