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के दिन थे उस समय उसका त्याग करके महाभिनिष्क्रमण करके संसार छोडकर निकल पडे । संयम स्वीकार कर जंगलों में एकान्त में सही साधना की । घोर तपश्चर्या की । उपसर्ग सहन किये। कर्मों की निर्जरा की और अन्त में वीतरागता, सर्वथा निर्मोहदशा, सर्वज्ञतादि प्राप्त की और अन्त में मुक्ति भी प्राप्त की।
इस तरह अनन्तकाल तक जिनके त्याग की सुवास सदा काल प्रसरती रहेगी... ऐसे त्याग का ऊँचा आदर्श जगत् के सामने रखकर गए । जैन तीर्थंकर भगवन्तों के जितना इतना ऊँचा आदर्शभूत त्याग जगत् में किसी भी भगवानों में दिखना भी संभव नहीं है । अतः भोग सुखदाता नहीं परन्तु त्याग ही सुखदाता है यह सिद्ध करके भगवन्तों ने दिखाया
शालिभद्र का त्याग
इतिहास काल के महान वैभवी, विलासी, ऐश्वर्यशाली शालिभद्र हुए। उनके चरणों में लक्ष्मी दासी बनकर रहती थी। प्रतिदिन की ९९ पेटीयाँ स्वर्ग से उतरती थी । सव्वा लाख रुपए के रत्नकंबल के टुकडे कर जिनकी पत्नीयां स्नान पश्चात् शरीर पोंछकर यूंही खाल में बहा देती थी। ३२.स्त्रियां जिनकी पत्नी के रूप में सदा उपस्थित रहती थी। और सातवें मंजील की हवेली से नीचे उतरना भी जिनके लिए मुनासिब नहीं था। फूलों की पंखडियों की शय्या-गद्दी भी जिन्हें खंचती थी ऐसे वैभवी जीवनवाले भोगोपभोगों को भोगनेवाले शालिभद्रजी उनमें आसक्त न होकर एक दिन संसार का त्यागकर संयमी साधु बन गए। इतना ही नहीं त्याग की पराकाष्ठा पर पहुँच कर उन्होंने पर्वत की शीला पर अनशन करके संथारा कर दिया। यह था उनका त्याग। उनका सुख-भोग-विपुल साधन-सामग्रियां जितनी ज्यादा नहीं प्रशंसी गई उससे हजार गुना ज्यादा उनकी त्याग की उत्कृष्टता हजारों वर्षों तक आज भी मुक्त कंठ से गाई जा रही है । धन्य थे वे जो हजारों वर्षों के भविष्य के लिए.. त्याग का आदर्श जगत् समक्ष रखकर गए हैं। अतः वे अमर बन गए हैं।
मोहवश ज्ञानदृष्टि के बंध द्वार
“अहं-ममेति मन्त्रोऽयं मोहस्य जगदान्यकृत् ।" पू. महामहोपाध्यायजी “ज्ञानसार" ग्रन्थ में स्पष्ट कहते हैं कि . . . जीव ने अनादि-अनन्त काल से एक मात्र एक ही मन्त्र का जाप अखण्डरूप से निरंतर किया है।
आत्मशक्ति का प्रगटीकरण
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